दैनिक भास्कर,18 मई, 2005 : अमेरिका अगर दादागीरी न करे तो वह अमेरिका ही क्या है? सुरक्षा परिषद् को लेकर अब खुले-आम उसने खम ठोक दिया है| अमेरिकी सरकार ने भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान को यह साफ़-साफ़ कह दिया है कि सुरक्षा परिषद में छह नए स्थायी सदस्य तो नियुक्त किए जा सकते हैं लेकिन उन्हें निषेध (वीटो) का अधिकार नहीं मिलेगा| अमेरिका ने यह घोषणा इस अदा से की है मानो वही संयुक्तराष्ट्र संघ हो| सुरक्षा परिषद् में अब से साठ साल पहले जिन पांच राष्ट्रों – अमेरिका, बि्रटेन, फ्रांस, सोवियत संघ और चीन – को वीटो का अधिकार मिला था, उनके अलावा अब भी किसी को नहीं मिलेगा| याने संयुक्तराष्ट्र संघ जड़-भरत बना रहगा| उसमें कोई विकास नहीं होगा| यदि अमेरिका की यही इच्छा है तो उससे कोई पूछे कि 51 सदस्योंवाले सं.रा. को अमेरिका ने 191 सदस्योंवाली विश्व-व्यापी संस्था क्यों बनने दिया? उसके हाथ-पांव का विस्तार तो होने दिया लेकिन उसके दिमाग (याने सु.प. के स्थायी सदस्यों) का विस्तार क्यों नहीं होने दिया? सुरक्षा परिषद् की सदस्यता एक बार बढ़ाई तो सिर्फ अस्थायी सदस्यों (दो वर्षीय) की संख्या छह से बढ़ाकर दस कर दी लेकिन स्थायी और वीटोधारी सदस्यों की संख्या शुरू से अब अब तक सिर्फ पांच पर ही क्यों अटकी रही? शायद इसलिए भी अटकी रही कि ये पांचों सदस्य परमाणु आयुध सम्पन्न भी हैं| अब यदि नए स्थायी सदस्य जोड़े जाएंगे तो क्या वे परमाणु शक्ति सम्पन्न होंगे? भारत के अलावा कोई भी परमाणु-शक्ति सम्पन्न नहीं है| न जापान, न जर्मनी, न ब्राजील, न मिश्र, न नाइजीरिया और न ही दक्षिण अफ्रीका ! ये ही संभावित उम्मीदवार हैं| स्थायी सदस्यों की संभावित सूची में पाकिस्तान और इस्राइल की तो गिनती भी नहीं है| इसीलिए सर्वशक्तिमान अमेरिका के दिमाग में तर्क यही बनता है कि जिनके पास परमाणु-शक्ति भी नहीं है, उन्हें उन पांच बड़ों की महफिल में क्यों बैठने दिया जाए? इस तर्क को अमेरिका अपनी जुबान पर अभी तक नहीं लाया है लेकिन उसके दिलो-दिमाग में यही तर्क है| अगर है तो यह बहुत खतरनाक है| इसलिए कि परमाणु-दहलीज़ पर बैठे लगभग एक दर्जन राष्ट्रों को यह खुला निमंत्रण है कि तुम भी बम बनाओ| चीन और भारत के रास्ते पर चलो और सु.प. के द्वार खटखटाओ| अमेरिका की यह कुबुद्घि विश्व-निरस्त्रीकरण की धज्जियां उड़ा देगी और संसार में परमाणु-अराजकता फैला देगी|
भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील – इन चार राष्ट्रों के चौगुटे ने ठान ली है कि वह एकजुट होकर रहेगा और वीटो का अधिकार लेकर रहेगा|यह असंभव नहीं कि अफ्रीका के उम्मीदवार-राष्ट्र भी इस तरह का संकल्प ले लें| यदि इन छह नए स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार नहीं देने पर अमेरिका अड़ा रहता है तो उसकी काफी किरगिरी हो सकती है, क्योंकि नए सदस्यों को वीटो मिले या न मिले, यह महासभा के दो-तिहाई बहुमत से तय होगा याने अगर 191 में से 128 राष्ट्र वीटो के पक्ष में मत दे देंगे तो अमेरिकी पक्ष पराजित हो जाएगा| इस हारी हुई बाजी को जीतने का एक ही तरीका अमेरिका के पास बच रहेगा| वह है – सं. रा. के पुनर्गठन के प्रस्ताव को अपनी सीनेट में ले जाना| यदि वीनेट उसकी पुष्टि न करे, जैसे कि उसने लीग ऑफ नेशन्स की नहीं की थी या सी टी बी टी की नहीं की थी तो अमेरिकी सरकार उस प्रस्ताव को रद्द करने के लिए बाध्य हो जाएगी| अर्थात्र या तो सं. रा. अपना प्रस्ताव पास ले या अमेरिका सं.रा. छोड़ दे| क्या यह संभव है? नहीं है| न अमेरिका सं.रा. छोड़ सकता है और न ही सं.रा. अमेरिका को छोड़ सकता है| इस दुविधा के दौर में नए स्थायी सदस्यों को अपनी वीटो की टेक बिल्कुल नहीं छोड़नी चाहिए| यदि अमेरिका अंत तक वीटो देने का विरोध करता रहा तो वह सारी दुनिया में बदनाम हो जाएगा| कशमकश का यह दौर जितने वर्ष चलेगा, उस अवधि में भारत और चीन जैसे राष्ट्र बहुत शक्तिश् हो जाएगंगे और वे विश्व शक्ति-संतुलन को ही बदल देंगे| ये नई महाशक्तियां सं.रा. को अमेरिका की कठपुतली नहीं बने रहने देंगी|
अमेरिका कोशिश करेगा कि वह जापान, जर्मनी और मिस्र को डिगा दे| वह सफल भी हो सकता है| वह 64 राष्ट्रों को पटाकर वीटो देने के प्रस्ताव को भी गिरवा सकता है| यह भी हो सकता है कि भारत अपनी टेक पर डटा रहा तो वह शायक अकेला पड़ जाए| लेकिन तब भी उसे पल्टा नहीं खाना चाहिए| सुरक्षा परिषद्र की स्थायी कुर्सी अगर उसे भीख के तौर पर मिल रही है याने बिना वीटो के मिल रही है तो भी उसे कतई स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वैसा करके वह सं.रा. और सु.प. दोनों को दुनिया के अप्रतिनिधि और अप्रामाणिक संस्था बनवाने में योगदान करेगा| यह संस्था विश्व जनमत और विश्वहित का जितना प्रतिनिधित्व आज करती है, उतना भी नहीं कर पाएगी| यदि भारत सु.प. में नखदंतहीन भिखारी की तरह बैठा रहा तो उसकी साख किसी अंतरराष्ट्रीय मसखरे की तरह हो जाएगी और अगर वह वीटोवंचित रहकर साधारण सदस्य की तरह भी महासभा में पहाड़ेगा तो उसकी आवाज़ होगी, सारी दुनिया की आवाज़ होगी|
दृढ़संकल्पी चौगूुटे का मनोबल गिराने के लिए यह तर्क भी दिया जा रहा है कि वीटो तो बहुत दूर की बात है, अभी तो उन्हें वीटोविहीन स्थायी सदस्यता मिलना भी मुश्किल है, क्योंकि एशिया में जापान का विरोध चीन और दोनों कोरिया कर रहे हैं, तथा इंडोनेशिया भी खम ठोक रहा है| भारत का विरोध पाकिस्तान कर रहा है| उधर जर्मनी का विरोध इटली और स्पेन तथा ब्राजील का विरोध अर्हेन्तिना और मेक्सिको कर रहे हैं| अमेरिका इस अंतर्द्वंद्व को बढ़ाने में कोई कसर क्यों उठा रखेगा? इस दुविधा को दूर करने के अनेक तरीके हैं| इन पर पार पाना मुश्किल नहीं है| इसी तरह यह तर्क भी बोदा है कि वीटो के लिए लार टपकानेवाले नए सदस्यों की जेब खाली है और उनकी फौजी मांसपेशी भी शिथिल है| हम यहां यह न भूलें कि सं.रा. को वीटोधारी चार सदस्यों – चीन, रूस, फ्रांस और बि्रटेन – के मुकाबले वीटो मांग रहे चार सदस्यों – जापान, जर्मनी, भारत और ब्राजील – का वित्तीय योगदान दुगुना है| जहां तक अमेरिका का सवाल है, वह सं.रा. को अपने घोषित योगदान का न्यूनतम भी नहीं देता है और जितना देता है (जो कि सबसे ज्यादा है), उससे ज्यादा उसे वापस मिल जाता है, क्योंकि सं.रा. का मुख्यालय न्यूयॉर्क में है| सं.रा. का करोड़ों डॉलर का दैनिक खर्च आखिर किसकी जेब में जाता है| भारत जैसे राष्ट्र ने सं.रा. की शांति-सेना में सबसे अधिक योगदान किया है और भारत के सुयोग्य अफसरों ने सं.रा. के कठिनतम मोर्चों पर अपनी अद्वितीय कर्तव्यनिष्ठा का परिचय दिया है| यों भी सं.रा. के निर्माण के समय अगर भारत स्वतंत्र राष्ट्र होता तो उसे स्थायी सीट और वीटो दोनों मिल जाते| यदि सुरक्षा परिषद्र में एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के राष्ट्रों को वीटोसहित स्थायी कुर्सी मिलेगी तो वे अमेरिको को बेलगाम होने से रोकेंगे, उसे अनैतिक कार्रवाइयों से विरत करेंगे और उसे अपेक्षाकृत अधिक सभ्य और सुशील राष्ट्र बनने में मदद करेंगे| यह दुनिया और अधिक रहने लायक बन जाएगी|
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