R Sahara, 15 Jan 2004 : अगर प्रश्न यह हो कि भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का जो समझौता पिछले हफ्ते इस्लामाबाद में हुआ, वह विफल हो गया तो क्या होगा ? मान लें कि फरवरी में जो बातचीत शुरू होनी है, वह शुरू ही न हो या शुरू होकर भंग हो जाए तो क्या होगा ? बातचीत शुरू क्यों नहीं होगी ? शुरू होने के सारे आसार नज़र आ रहे हैं| बस, रेल, वायु मार्ग खुल रहे हैं, वीजा-नियंत्रण ढीला पड़ रहा है, दोनों तरफ से आक्रामक बयान बंद हो गए हैं, बातचीत का स्वागत दोनों देशों के सभी महत्वपूर्ण पक्ष कर रहे हैं, अन्तरराष्ट्रीय समुदाय भी उत्साहित है| इसीलिए साधारणतया बातचीत फरवरी में शुरू होनी चाहिए| यदि अचानक कोई भयंकर आतंकवादी घटना घट जाए और शक यह हो कि उसमें पाकिस्तानी गुप्तचर सेवा का हाथ है तो हो सकता है कि माहौल बदल जाए| दोनों राष्ट्रों के नेताओं को थोड़ा रुकना पड़ेगा लेकिन उस स्थिति में जनरल मुशर्रफ को अपनी छवि चमकाने का नया मौका मिल सकता है| वे चाहें तो भूटान के राजा की तरह आतंकवादियों पर टूट पड़ सकते हैं| इस प्रक्रिया में कुछ समय लग सकता है लेकिन वह दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद होगा| यदि बातचीत मई-जून तक टल जाए तो भारत में तब तक चुनाव हो लेंगे| भारत के सत्तारूढ़ नेता बातचीत के इस ब्लैंक चेक को अपने पक्ष में भुना लेंगे| लगभग इसी समय अफगानिस्तान में भी चुनाव होने हैं| अमेरिका की आकांक्षा है कि अल-कायदा के आतंकवादी वहॉं हस्तक्षेप न करें| जनरल मुशर्रफ अपनी तोप का दूसरा मॅुंह भी खोल सकते हैं| आतंकवाद-दमनवीर का नया तमगा अपनी फौजी वर्दी पर टॉंक सकते हैं| तात्पर्य यह कि भारत-पाक बातचीत में अगर थोड़ा विलंब हो गया तो भी वह नुकसानदेह साबित नहीं होगी|
अगर बातचीत शुरू हो गई तो उसका भंग होना बहुत आसान नहीं होगा| भंग होने के जितने भी कारण हो सकते हैं, वे दोनों पक्षों को पहले से पता हैं| सिर्फ विदेश सचिवों की बातचीत ही नहीं, ट्रेक-टू के संवाद भी कई बार भंग हुए हैं| दोनों पक्ष इस बार उन्हीं गलतियों को नहीं दोहराऍंगे| वे कोशिश करेंगे कि बातचीत को भंग करनेवाले बिन्दु के निकट वे सबसे आखिर में पहॅुंचें| इसका लाभ यह होगा कि अगर बातचीत भंग भी हुई तो वह इतनी लम्बी खिंच जाएगी कि उस अवधि के दौरान यदि मुक्त-व्यापार, सामाजिक-उद्घार और आतंकवाद-दमन के जो तीन महत्वपूर्ण दक्षेस-संकल्प हुए हैं, उनकी जड़ें जमने लगेंगी| उनके फायदे दिखाई पड़ने लगेंगे| इन फायदों की उष्मा भी भारत-पाक बर्फ को पिघलाएगी| यदि अमेरिका और चीन अपने संबंधों को सहज बनाने के लिए लगातार सोलह वर्ष तक संवाद चलाए रख सकते हैं तो भारत और पाक कम से कम सोलह माह तक तो चलाऍं| बातचीत टूटे नहीं, चलती रहे, यह जितना अटलजी के लिए आवश्यक है, उतना ही मुशर्रफ के लिए भी है| भारत में चुनाव की घोषणा होते ही वाजपेयी-सरकार तदर्थ सरकार बन जाएगी| क्या तदर्थ सरकार कोई मूलभूत समझौता कर सकती है ? उसके लिए यह बेहतर है कि वह अपनी नई पारी की प्रतीक्षा करे याने किसी भी बहाने बातचीत चलती रहे| उधर मुशर्रफ को साल भर बाद अपना फौजी पद छोड़ना है| पूर्ण राजनीतिक बनते हुए दिखाई पड़ने के लिए बातचीत की निरंतरता उनके लिए वरदान साबित होगी| दोनों राष्ट्रों के नेतृवर्ग के निहित स्वार्थों की घटाऍं बातचीत के पक्ष में घिरी हुई हैं|
भारत-पाक वार्ता को चलाए रखने में ज्यादा खतरा मुशर्रफ को है, अटलजी को नहीं| अटलजी को तो फायदा ही फायदा है| यहॉं तक कि मंदिर-मस्जिद विवाद में भी फायदा हो सकता है| भारतीय मुसलमानों को लग रहा है कि जो आदमी पाकिस्तानी मुसलमानों का दिल जीत सकता है, उसकी बात हिन्दुस्तानी मुसलमानों को क्यों नहीं मान लेनी चाहिए ? लेकिन यह पासा मुशर्रफ के लिए उल्टा भी पड़ सकता है| भारत-पाक समझौते का स्पष्ट विरोध अभी पाकिस्तान में कोई नहीं कर रहा लेकिन यह कानाफूसी शुरू हो गई है कि मुशर्रफ अटलजी की चाणक्य-नीति (चानकीया-नीती) के शिकार हो रहे हैं| फौज, गुप्तचर सेवा और मुल्ला पार्टियों के कुछ उग्रवादी तत्व आतंकवादियों को पानी पर न चढ़ाऍं तो आश्चर्य ही होगा| यह असंभव नहीं कि मुशर्रफ की हत्या या उनके तख्ता-पलट की कोशिश की जाए| मुशर्रफ को बहुत सावधान रहना होगा| इस अर्थ में मुशर्रफ की सरकार तो स्थायी तदर्थ सरकार है| मुशर्रफ ने पिछले चार साल जिन कलाबाजियों के साथ काटे हैं, उस कौशल के आगे बड़े-बड़े नेता पानी भर रहे हैं| उम्मीद है कि भारत के साथ बातचीत का रास्ता खोलकर उन्होंने जो हिम्मत दिखाई है, उस पर वे डटे रहेंगे| वे डटे रहे और बातचीत सफल हो गई तो पाकिस्तान में मुशर्रफ का मुकाम जिन्ना से कम न होगा| इतिहास के खेल भी अजीब होते हैं| तोड़नेवाले और जोड़नेवाले, दोनों का मुकाम एक ही होगा|
भारत-पाक समझौते पर कुछ लोग बिल्कुल भी उत्साहित नहीं हैं| उन्हें लगता है कि ताशकंद, शिमला, लाहौर और आगरा की तरह इस्लामाबाद संयुक्त-बयान भी बांॅझ साबित होगा| उनका संदेह निराधार नहीं है लेकिन अब जिन परिस्थितियों में यह संयुक्त-बयान आया है, वे पिछले सभी समझौतों की परिस्थितियों से भिन्न हैं| इस तथ्य को समझना जरूरी है| ताशकंद और शिमला समझौते 1965 और 1971 के युद्घों के बाद हुए थे| दोनों समझौतों के पाकिस्तानी नायकों – अयूब खान और जुल्फिकारअली भुट्टो – की कुर्सियॉं समझौतों के तुरंत बाद हिलने लगी थीं| लाहौर घोषणा के बाद नवाज शरीफ ने अपने खिलाफ कई मोर्चे खोल लिए थे | उनकी लोकपि्रयता घटने लगी थी| इसके विपरीत आज मुशर्रफ की लोकपि्रयता चरमोत्कर्ष पर है| पाकिस्तानी संसद के साथ चल रहा साल भर पुराना उनका गतिरोध दूर हो गया है| विरोधी दलों के साथ उनका समझौता हो चुका है| मज़हबी दल उनके साथ हैं| उनका समर्थन कर रहे हैं| अमेरिका के वे चहेते हैं| भारत के साथ बात करने की बात करके उन्होंने कुछ खोया नहीं है| वे उस तरह के दबाव में नहीं थे, जैसे कि अयूब और भुट्टो थे| अयूब को हारी हुई जमीन लौटानी थी और भुट्टो को युद्घबंदी ! पाकिस्तान में उस समय यह नहीं माना जा रहा था कि वे लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गॉंधी से बराबरी के दर्जे पर खड़े होकर बात कर रहे थे जबकि मुशर्रफ और अटलजी को पाकिस्तान एक ही पायदान पर खड़ा देख रहा था| मुशर्रफ फौजी शासक होने के साथ-साथ पाकिस्तान के राजनीतिक शासक भी हैं| मुशर्रफ में आत्म-विश्वास नहीं होता तो क्या वे अटलजी की तारीफ के पुल बॉंधते ? भारत और पाकिस्तान के बीच नेहरू-लियाकत पेक्ट से लेकर अब तक कई समझौते हुए हैं, लेकिन नेताओं में ‘परम्परं प्रशंसन्ति’ का जैसा दौर इस बार चला, पहले कभी नहीं चला| मुशर्रफ से अटलजी का यह कहना कि ‘आप अपनी सुरक्षा का ध्यान रखिए’, कम बड़ी बात नहीं है|
अटलजी और मुशर्रफ के बीच आगरा में जो तार टूटे थे, वे बिल्कुल जुड़ गए लगते हैं| यह अजूबा है| क्या इसका कारण केवल ये दो नेता या इनकी मनस्थितियॉं ही हैं ? यह मान लेना बहुत सतही होगा| नेताओं के स्वभाव, समझ, रुझान आदि का असर विदेश नीति निर्णयों पर अवश्य पड़ता है लेकिन इस तरह के नाजुक फैसलों के पीछे अनेक मूलभूत कारण भी होते हैं| पिछले दो साल में दोनों देशों के बीच तनाव इतना अधिक बढ़ गया था कि परमाणु-युद्घ के बादल मॅंडराने लगे थे| भारत ने सीमांत पर फौजें भी डटा दी थीं| इस बात पर शक था कि इस बार दक्षेस सम्मेलन होगा या नहीं और अगर हुआ तो भारत और पाकिस्तान के शीर्ष नेता आपस में मिलेंगे या नहीं| न केवल वे मिले बल्कि उन्होंने एक ऐसा संयुक्त बयान जारी किया, जिसने दोनों को अपने-अपने चक्र-व्यूह से बाहर निकलने का मौका दिया| भारत ने टेक लगा रखी थी कि जब तक सीमा-पार आतंकवाद बंद नहीं होगा, वह बात नहीं करेगा| पाकिस्तान कहता था, उसे आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं और अगर बात करनी है तो पहले कश्मीर पर बात करो| दोनों सरकारें अपने ही खॉंचों में फॅंस गई थीं| इस्लामाबाद-बयान ने इन दोनों खॉंचों को तोड़ दिया है| पाकिस्तान ने भारत की बात मान ली है कि वह आतंकवाद का डटकर विरोध करेगा और भारत ने पाकिस्तान की बात मान ली है कि वह कश्मीर पर बात करेगा| इस समझौते में कोई नहीं हारा| दोनों जीते| आतंकवाद से निपटने के लिए पाकिस्तानी संसद ने अभी-अभी अपने पहले से बने कानून में जरूरी संशोधन किए हैं और उधर कश्मीर पर ऐसा समाधान खोजने का आश्वासन दिया गया है, जो दोनों पक्षों को संतुष्ट करे| “दोनों पक्षों की संतुष्टि” की बात अब से पहले कभी नहीं कही गई| इसका अर्थ क्या है ? बहुत गहरा है| वह यह है कि दोनों झुकेंगे, दोनों लचीले होंगे, दोनों यथार्थवादी बनेंगे| दोनों पोंगा पंडितों की तरह कोरे सिद्घांत नहीं बघारेंगे| यों भी दक्षेस के दौरान न तो पाकिस्तान ने जनमत संग्रह का राग अलापा और न ही भारत ने ‘अटूट अंग’ का लाल कपड़ा फहराया| कश्मीर पर जो बात होगी, उसमें आशा है कि कश्मीरियों की राय को उचित स्थान दिया जाएगा और स्वायत्तता, संयुक्त संप्रभुता, संयुक्त प्रबंध, उभय-स्वायत्तता आदि प्रस्तावों पर खुलकर बातचीत होगी|
इसी प्रकार आतंकवाद-दमन की जब बात चलेगी तो मुशर्रफ कहीं वही पुराना रेकार्ड न बजाने लगें याने वे आतंकवाद-विरोधी तो हैं लेकिन कश्मीर में आतंकवाद है, कहॉं ? वहॉं तो स्वाधीनता संग्राम चल रहा है| अगर उन्होंने यह कह दिया, जो कि आगरा में कहा था तो मान लीजिए कि इस्लामाबाद-बयान पर पानी फिर जाएगा| इस मुद्दे पर पाकिस्तानी दिमाग की सफाई बहुत जरूरी है| हमारे प्रधानमंत्रीजी को यह दुख भी है कि पाकिस्तानियों ने उनके 1857 (स्वाधीनता संग्राम) के डेढ़-सौ साल की जयंति के संयुक्त-आयोजन के प्रस्ताव को अमान्य कर दिया| इसीलिए कर दिया कि हम उन्हें ठीक से समझा न सके| उन्होंने पूछ लिया कि क्या गदर आतंकवाद नहीं था ? हम चुप हो गए| विदेशी सरकार तो आतंक का मूर्तिमंत रूप होती है| उसके विरुद्घ की गई बगावत को आतंक कैसे कहा जा सकता है ? इसी प्रकार अपनी जनता और अपनी सरकारों के विरुद्घ की गई हिंसा आतंक नहीं है तो फिर आतंक क्या है ? पाकिस्तान में जो राजनीतिक लोग आतंकवाद को स्वाधीनता-संग्राम मानते हैं, भारत सरकार को अब सबसे ज्यादा ध्यान उन्हीं पर देना होगा| काज़ी हुसैन अहमद जैसे नेताओं को समझाए बिना इस्लामाबाद-घोषणा का सफल होना आसान नहीं है| अमेरिकी दबाव के अलावा मुशर्रफ पर अभी-अभी जो दो जानलेवा हमले हुए हैं, उन्होंने सचमुच उन्हें आतंकवाद-विरोधी बना दिया है| लेकिन पाकिस्तानी समाज के दिमाग से आतंकवाद-प्रेम और भारत-भय को निकाले बिना दोनों सरकारों की बातचीत का सफल होना आसान नहीं है|
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