R Sahara, 25 Feb 2005 : अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई तीसरी बार भारत आए| चार साल में तीन बार कोई भी अफगान नेता कभी भारत नहीं आया| भारत के प्रधानमंत्री को अफगानिस्तान गए 35 साल से भी ज्यादा हो गए| हामिद करज़ई आधुनिक अफगानिस्तान के ढाई सौ साल के इतिहास में पहले राष्ट्राध्यक्ष हैं, जो जनता द्वारा सीधे चुने गए हैं| भारत से उनका विशेष संबंध है| वे शिमला विश्वविद्यालय में पढ़े हैं| हिंदी बोलते हैं और पढ़ भी लेते हैं| राष्ट्रपति भवन में जैसे ही हामिद करज़ई मुझसे हिंदी में बात करने लगे, हमारे राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम मुस्कराने लगे| दो-तीन मिनट तो वे हम दोनों के साथ खड़े रहे और फिर आगे बढ़ गए| हामिद भाई के साथ एक तो पुराना संबंध है और जब हम लोग हिंदी या फारसी में बात करते हैं तो मुझे उन्हें “महामहिम” कहकर संबोधित करना याद ही नहीं रहता है| करज़ई से पहली मुलाकात लगभग 20 साल पहले पेशावर में हुई थी, जब मुजाहिदीन नेताओं और मेरे बीच वे अनुवादक का काम करते थे| उनके पिता अफगान संसद के उपाध्यक्ष थे| पहली बार (1969) जब मैं अफगान संसद देखने गया तो द्वार पर वे ही मुझे लेने आए थे| करज़ई के भाई लोग कई बार मुझसे वाशिंगटन डी.सी. और न्यूयार्क में मिलते रहे हैं|
पिछली बार करज़ई जिस दिन भारत आए, उसी दिन गोधरा कांड हो गया| प्रधानमंत्री का भोज 3.30 बजे तक चलता रहा और हम में से किसी को उसका पता ही नहीं चला| कुछ देर बाद, जैसे ही पता चला, करज़ई की यात्रा से सबका ध्यान हट गया| इस बार करज़ई कुछ ठोस उपलब्धियॉं लेकर जा रहे हैं| 16 साल से बंद पड़ी इंडियन एयरलाइंस की दिल्ली-काबुल उड़ान 27 मार्च से फिर शुरू होगी| भारत के डॉक्टरों, शिक्षकों, इंजीनियरों की संख्या बढ़ेगी| भारत को भवन-निर्माण के ठेके मिलेंगे| सबसे बड़ी बात यह है कि करज़ई पाकिस्तानी शासकों को समझाऍंगे कि वे भारत का माल पाकिस्तान के जरिए अफगानिस्तान पहॅुंचने दें| यदि करज़ई यह रास्ता खुलवा सकें तो भारत के लिए मध्य एशिया के पॉंचों गणतंत्र खुल जाऍंगे| अफगानिस्तान की दोस्ती भारत के महाशक्ति बनने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है|
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति और ईरान के विदेश मंत्री डॉ. कमाल खर्राजी, दोनों से मैंने कहा कि आप दोनों राष्ट्र दक्षेस (सार्क) के सदस्य बन जाऍं तो ये रास्ते ज़रा जल्दी खुल पड़ेंगे| वास्तव में इस समय ईरान और अफगानिस्तान में प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है| ये दोनों राष्ट्र अपनी-अपनी पाइप लाइनें भारत तक पहॅुंचाना चाहते हैं|
भारत-पाक-बांग्लामहासंघ
डॉ. राममनोहर लोहिया ने कभी भारत-पाक एका का अभियान चलाया था| जब तक संसोपा जिंदा रही, हर साल सारे देश में छोटे-मोटे सम्मेलन होते रहते थे| उन दिनों टी वी वगैरह नहीं थे| इंटरनेट भी नहीं था| अखबार भी आते-जाते नहीं थे| इसीलिए पाकिस्तानियों को पता ही नहीं चलता था कि भारत में इस तरह की कोई मुहिम चल रही है| अब एका नहीं लेकिन दोस्ती की दर्जनों मुहीम एक साथ चल पड़ी है| लाहौर से डॉ. मुबशर हसन, ए.आर.रहमान आदि आए हुए हैं| तीन दिन का भारत-पाक दोस्ती सम्मेलन दिल्ली में हो रहा है| इधर से बहन निर्मला देशपांडे सैकड़ों लोगों को लेकर पाकिस्तान जाती रहती हैं| कल ही लाहौर से मियॉं महमूद आमेर का फोन आया था| वे लाहौर के नाजि़म (प्रशासक) हैं और पाकिस्तान की अनेक शिक्षण संस्थाआंंे के संचालक हैं| वे अपनी छात्राओं और शिक्षिकाओं को दिल्ली भेजना चाहते हैं| इधर ‘राष्ट्रवादी’ संगठनों के भी कुछ जत्थे पाकिस्तान जाने को लालायित हैं याने भारत-पाक एका हो या न हो, फिलहाल एक-दूसरे को जानने की ललक तो बढ़ गई है| महासंघ बने, यह नारा उ.प्र. के लोहियावादी कार्यकर्त्ता श्री राजनाथ सिंह ने अभी दिल्ली आकर लगाया| पिछले साल भी गॉंधी शांति प्रतिष्ठान में उन्होंने कार्यक्रम रखा था| भारत-पाक-बांग्ला महासंघ के कार्यक्रम में उपस्थिति तो अच्छी होती है लेकिन मंच पर वे ही लोग दिखाई पड़ते हैं, जो राजनीति के हाशिए पर हैं या बिल्कुल बाहर हैं – जैसे रवि रॉय, सत्यनारायण रेड्डी, रघु ठाकुर, मस्तराम कपूर आदि| श्री मुलायमसिंह से आयोजकों ने बहुत संपर्क किया| सफलता नहीं मिली| जनेश्वर मिश्र, जॉर्ज फर्नांडीस, शरद यादव, सुरेंद्र मोहन जैसे नेताओं से पता नहीं कोई सम्पर्क भी करता है या नहीं| यों भी अपने नेताओं को अब सपने देखने की फुर्सत कहॉं है? लोहिया के ज़माने में देश के नेता विश्वयारी में फंॅसे रहते थे, अब ये नेता कुर्सीयारी में फंसे हुए हैं| भारत-पाक एका, अंग्रेजी हटाओ, जात तोड़ो, संभव बराबरी आदि आंदोलनों से देश तो बनता है लेकिन कुर्सी की जुगत कितनी बनती है? कुर्सी की जुगत से दूर रहनेवाले आचार्य राममूर्ति जैसे गॉंधीवादी लोग अब कुछ पहल कर रहे हैं कि ‘दक्षिण एशिया : एक परिवार’ – जैसा कोई अभियान शुरू हो| श्री ओम पूर्ण स्वतंत्र के प्रयत्न से गॉंधी स्मारक निधि में पिछले हफ्ते एक बैठक भी हुई, जिसमें प्रसिद्घ संविधानशास्त्री डॉ. सुभाष काश्यम, कश्मीरी सांसद शाहीन और निधि के सचिव रामचंद्र राही जैसे लोगों ने भाग लिया| दक्षिण एशिया की एकता का आधार क्या हो, इस मुद्दे पर गहन चर्चा हुई| क्या यूरोप की तरह हमारी एकता का आधार केवल आर्थिक हो या सूफीवाद या वेदांत जैसी कोई विचारधारा हो? मेरी विनम्र राय थी कि ईरान से बर्मा और तिब्बत से मालदीव तक के क्षेत्र में बसे सवा करोड़ लोग सदियों से एक बृहत्र परिवार की तरह रहे हैं| यह परिवार-भाव, यह सांस्कृतिक आधार ही हमारी एकता का आधार बन सकता है| यह अखंड भारत या यूरोपीय समुदाय से काफी अलग है| इस सांस्कृतिक आधार की नींव पर हर साल जन-दक्षेस का आयोजन किया जाना चाहिए, जिसमें हर देश से सैकड़ों लोग आऍं और भाग लें|
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