कल मैं भोपाल में था। वहां अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का पहला दीक्षांत समारोह संपन्न हुआ। इस वि.वि. की स्थापना अब से पांच साल पहले सरसंघ चालक स्व. सुदर्शनजी और मेरे कहने पर मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने की थी। इधर दीक्षांत समारोह चल रहा था और उधर राष्ट्रपति द्वारा हिंदी सलाहकार समिति की सिफारिशें स्वीकार करने की खबरें आ रही थीं। मेरी प्रसन्नता का कोई पारावार नहीं था लेकिन मैं ज्यों ही ज़रा गहरे में उतरा तो मालूम पड़ा कि हिंदी के नाम पर सर्वत्र सतही लीपापोती हो रही है। ठोस काम कुछ हो नहीं रहा। पांच साल बीत गए लेकिन हिंदी माध्यम वाले इस विवि में डाक्टरी, कानून, इंजीनियरी, गणित और विज्ञान जैसे विषयों की उच्च स्तरीय पढ़ाई अभी तक हिंदी में शुरु नहीं हुई है।
अब से 50 साल पहले मैंने जब अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा था तो संसद में तूफान-सा आ गया था। संसद और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ज. नेहरु विवि ने मेरा ग्रंथ स्वीकार किया और समस्त भारतीय भाषाओं के द्वार उच्च-शोध के लिए खुल गए लेकिन मुख्य सवाल है कि पिछले 50 साल में क्या 50 शोधग्रंथ भी हिंदी में लिखे गए? लोग हिंदी माध्यम से उच्च शोध क्यों करेंगे? जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहेगा, तब तक आप देश में भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवा ही नहीं सकते।
इसी प्रकार संसदीय राजभाषा समिति की रपट में मोटी-मोटी 117 सिफारिशें की गई हैं, जिनमें से ज्यादातर सिफारिशों को राष्ट्रपति ने स्वीकार कर लिया है। कुछ सिफारिशें काफी अच्छी हैं लेकिन जो स्वीकार की गई हैं, वे नख-दंतहीन हैं। जैसे हिंदी अफसरों की संख्या और तनख्वाह बढ़ाई जाए, एयर इंडिया के टिकिटों पर हिंदी भी हो, पासपोर्ट की अर्जियां हिंदी में भी हों- इस तरह की भीखमांगू बातें राष्ट्रपतिजी ने मान ली हैं। अंग्रेजी महारानी के आगे हिंदी नौकरानी की तरह भीख मांग रही है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और जो भी अधिकारी हिंदी जानते हैं, वे भी अपने भाषण हिंदी में ही दें। याने जो हिंदी में नहीं बोलना चाहें, उनके लिए चोर गली बनी हुई है।
इस समिति ने जहां भी अंग्रेजी के रुतबे को छूने की कोशिश की है, राष्ट्रपतिजी ने वहां ही कट्टस का निशान लगा दिया है। जैसे उन स्कूलों को मान्यता नहीं देना, जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से नहीं पढ़ाते, सरकारी भर्ती-परीक्षा में हिंदी की अनिवार्यता, संसद में हिंदी और मातृभाषा के प्रयोग पर जोर- इन सब प्रश्नों पर सरकार की बोलती बंद है। सरकार किसी की हो, ‘मनमौनीजी’ की हो या ‘मनमौजीजी’ की, दोनों ही अंग्रेजी की गुलामी के लिए मजबूर हैं। कब ऐसी राष्ट्रवादी सरकार भारत में बनेगी जो अपना खुद का, संसद का और अदालतों का कामकाज भी जनता की भाषा में चलाएगी।
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