रा. सहारा 23 Jan 2005 : हिंदी को आजकल अपच हो रहा है। टी वी चैनलों और कुछ अखबारों की मेहरबानी के कारण । हर हिंदी वाक्य में अटपटे अंग्रेजी शब्दों को घुसा दिया जाता है। भाषाएँ नए-नए शब्दों को स्वीकार करें तो उनका हाजमा जरुर बढ़ता है लेकिन नए के नाम पर बेढब, अनगढ़ और अप्रचलित शब्दों को ठॅूंस लिया जाए तो भाषाई अपच के अलावा क्या हासिल हो सकता है? अपनी भाषा में सरल और सटीक शब्द उपलब्ध होने पर भी उनकी जगह जब विदेशी भाषा के शब्द घुसाए जाते हैं तो दो बातें एक दम स्पष्ट हो जाती हैं। पहली तो यह कि उस तरह की घिच-पिच भाषा बोलनेवाला या लिखनेवाला व्यक्ति भाषाई अपंग है। उसकी शिक्षा अधूरी है। उसकी हालत अनपढ़ों से भी बदतर है। वह उधारी भाषा बोलता है। दूसरी बात यह कि दीमागी तौर पर वह गुलाम है। गुलाम इसलिए कि वह हिंदी में अंग्रेजी शब्दों को घुसाता है। यदि वह संस्कृत और फ्ऎारसी के शब्द घुसाए तो गुलाम नहीं कहलाएगा। अधिक से अधिक मोहग्रस्त कहलाएगा। पुरानी भाषाओं का मोह। लेकिन अंग्रेजी तो प्रभु-भाषा है। प्रभु-भाषा के अनावश्यक शब्दों को थोपना तो शुद्ब बौद्बिक गुलामी है। यदि आप 19वीं सदी के अफ््रऎीका के गुलामों और एशिया के प्रवासी बंधुआ मजदूरों की भाषा का अध्ययन करें तो उनकी भाषा और हमारे उक्त टी वी चैनलों और अखबारों की भाषा में ज्यादा अंतर नहीं मिलेगा। आधुनिकता के नाम पर गुलामी की धारावाहिकता पनप रही है।
अंग्रेजी शब्दों की बहुतायत के पीछे एक तर्क यह भी हो सकता है कि जैसा बोलें, वैसा लिखें। ऐसी भाषा अधिक सहज और सरल होगी। मूल रुप से यह तर्क ठीक है लेकिन यहाँ व्यवहार में सतर्क रहने की जरुरत है। यदि बोलना ही लिखने और पढ़ने का आधार बन जाए तो पूर्ण अराजकता छा जाएगी, क्योंकि बोलियाँ तो हजारों हैं और हर 10-20 कि म़ी पर वे बदल जाती हैं। अंग्रेजी शब्दों की भरमारवाली हिंदी कहाँ बोली जाती है और उसे कितने लोग बोलते हैं? बड़े शहरों के चिकने-चुपड़े वर्गों के लोगों की संख्या कितनी है? एक प्रतिशत भी नहीं। इस वर्ग की अपंग भाषा, अपच भाषा, गुलाम भाषा, शेष 99 प्रतिशत लोगों पर क्यों थोपी जाए? खाएँ वही, जो पचे। जो पचे नहीं, वह क्यों खाएँ? जो शब्द अपनी भाषा में पच जाएँ, रच जाएँ, वे किसी भी भाषा के हों, उनका स्वागत होना चाहिए। शब्दों में छुआछूत नहीं बरती जा सकती लेकिन वे सबको समझ में आएँ, क्या यह आग्रह गलत है?
मधुकरजी
श्री ब्रजेंद्रकुमार भगत `मधुकर’ मोरिशस के राष्ट्रकवि माने जाते हैं। 86 वर्ष की आयु में अभी कुछ माह पहले ही उनका निधन हुआ है। मोरिशस और भारत में उनसे मिलने का मौका कई बार मिला है। वे उत्कट हिंदीप्रेमी थी। वे भव्य और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। भारत में उनका परिचय किस-किस से नहीं था? महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, शिवमंगल सुमन, पुरुषोत्तमदास टंडन, धर्मवीर भारती, हजारीप्रसाद द्विवेदी – सभी से उनका मिलना-जुलना और पत्र-व्यवहार था। डॉ राजेंद्रपस्राद और डॉ संपूर्णानंद के अलावा जवाहरलाल नेहरु और इंदिरा गाँधी से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी तक लगभग सभी प्रधानमंत्री उन्हें जानते थे। अपने लगभग 65 साल के रचना-काल में उनके दर्जनों काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए, अनेक सम्मान मिले और मोरिशस में अपूर्व लोकप्रियता भी मिली।
लेकिन भारत के साहित्य-जगत में उनकी पहचान अभी भी बाकी है। इस दिशा में प्रेमचन्द-विशेषज्ञ के तौर पर विख्यात डॉ कमलकिशोर गोयन्का ने सराहनीय पहल की है। उन्होंने मधुकर `काव्य रचनावली’ का प्रकाशन किया है। इस बड़े आकार के सुरुचिपूर्ण ग्रंथ में मधुकरजी की सभी काव्य-रचनाओं का संकलन तो है ही, ऐसे दुर्लभ चित्र, पत्र, दस्तावेज, पांडुलिपियाँ आदि भी हैं, जो इसे किसी भी उत्तम अभिनंदन गं्रथ से भी बेहतर बना देते हैं। यह गं्रथ पठनीय और दर्शनीय, दोनों हैं। डॉ गोयन्का की 37 पृष्ठ की भूमिका मधुकरजी के रचना-संसार का विहंगम मूल्यांकन करती है। अभिनंदन गं्रथों में छपे प्रशस्ति-मूलक लेखों के बजाय ऐसा मूल्यांकन साहित्यिक दृष्टि से अधिक उपयोगी हो सकता है। इस तरह के ग्रंथ प्रवासी भारत के सभी प्रमुख रचनाकारों पर निकलें तो हिंदी जगत के विस्तार और सौष्ठव से साधारण हिंदीप्रेमियों का भी परिचय बढ़ेगा।
देहदुबई द़िलदेश
किसी काव्य-संग्रह का यह शीर्षक क्या ज़रा अटपटा नहीं लगता? लगता तो है लेकिन यह एक ऐसे कवि का संग्रह है, जो दुबई में रहता है और जिसका दिल उज्जयिनी में बसता है। उज्जैन में पले-बढ़े गंगाधर जसवानी मूलत: सिंधी हैं लेकिन हिंदी में कविता लिखने का शौक उन्हें बचपन से ही है। छोटी उम्र में रोजगार की तलाश में वे जब दुबई पहॅुंचे तो कविता भूल गए लेकिन ज्यों-ज्यों समृद्बि बढ़ती गई और अवकाश मिलता गया, वे कविता की तरफ्ऎ लौटते गए। इस पहले काव्य-संग्रह की भूमिका डॉ शिवमंगलसिंह सुमन ने लिखी है। शायद सुमनजी की लिखी यह आखिरी भूमिका थी। संग्रह का प्रकाशन राजकमल ने किया है और उसका लोकार्पण श्री अटलबिहारी वाजपेयी करेंगे।
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