दैनिक हिन्दुस्तान, 14 Sept. 2003 : हिन्दी को ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के नारे के साथ जोड़ना सरासर गलत है | पहली बात तो यह कि हिन्दी सिर्फ हिन्दुओं की भाषा नहीं है | यदि यह हिन्दुओं की ही भाषा है तो अमीर खुसरो, रहीम, रसखान, मलिक मुहम्मद जायसी, कुतबन, मंझन, ताजबीबी, आलम, रसलीन आदी को क्या कहेंगे ? हिन्दी के ये महान कवि क्या हिन्दू थे ? दक्षिण भारत में हिन्दी को ‘मुसलमानी’ या ‘दक्खिनी हिन्दी’ कहा जाता था| दक्खिनी हिन्दी के पॉंचों महान कवि – निजामी, बुरहानुद्रदीन जानम, मुल्ला वजही, इब्राहिम आदिलशाह और गवासी – मुसलमान थे| मीर तक़ी मीर, जिन्हें गालिब अपने से बेहतर शायर मानते थे, खुद को हिन्दी का कवि कहते थे| उनका एक शेर देखिए :
“क्या जानूं लोग कहते हैं किसको सरूरे-कल्ब,
आया नहीं है लफ्रज़ ये, हिन्दी जबॉं के बीच|”
हिन्दी हर हिन्दुस्तानी की भाषा है, हिन्द में रहनेवाले हर व्यक्ति की भाषा है| यदि ऐसा नहीं होता तो इसे हिन्दी भाषा नहीं, हिन्दू भाषा कहा जाता | हिन्दी नाम ही मुसलमानों का दिया हुआ है|
हिन्दी अकेले हिन्दुस्तान की भाषा शायद हजार साल पहले रही हो| अब नहीं है| अब वह पाकिस्तान की भी भाषा है और दुनिया के अन्य लगभग दर्जन भर देशों की प्रमुख भाषा है | भारत के बाहर हिन्दी को बोलने और समझनेवालों की संख्या करोड़ों में है | दक्षिण एशिया के देशों में ही नहीं, फीजी और मोरिशस से सूरीनाम तक लगभग सवा सौ देशों में हिन्दी के लाखों बोलने-समझनेवाले फैले हुए हैं | भारतीय टेलिविजन चेनलों पर हिन्दी कार्यक्रमों की पहुंच अब एक अरब से ज्यादा लोगों तक है | जिस भाषा के धारावाहिकों को देखने के लिए पाकिस्तान में हड़ताल हो जाए, उस भाषा को सिर्फ हिन्दुस्तान की भाषा कहना कहॉं तक ठीक है ?
जहॉं तक ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के नारे का सवाल है, यह नारा लगानेवालों ने हिन्दी के लिए क्या किया है ? उन्होंने हिन्दी के लिए कुछ नहीं किया | हिन्दी की पूंछ पकड़कर उन्होंने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसी बड़ी नौकरियॉं हथिया लीं| केन्द्र और राज्यों में अपनी सरकारें बना लीं| हिन्दी के लिए वास्तव में जिन्होंने देश जगाया और हिलाया, वे लोग ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ वाले लोग नहीं थे | महर्षि दयानंद, महात्मा गॉंधी, सुभाषचंद्र बोस, काका कालेलकर, पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंददास, राममनोहर लोहिया और अब मुलायमसिंह को आप किस श्रेणी में रखेंगे ? क्या ये लोग सांप्रदायिक और संकीर्ण हैं? हिन्दी को सांप्रदायिकता से जोड़ना सारी बहस को घसीटकर 19वीं सदी के दलदल में ले जाना है, जबकि भारतेन्दु हरिश्चंद्र और सर सय्रयद अहमद जैसे दिग्गजों में हिन्दी और उर्दू को लेकर टक्कर हुई थी| हिन्दी और उर्दू में लिपि के अलावा कौनसा अंतर है ? क्या एक भाषा अनेक लिपियों में नहीं लिखी जाती ?
हिन्दी न तो किसी धर्म-विशेष की भाषा है और न ही जाति-विशेष की | उसके माथे पर ब्राह्रमणवादी और सवर्णवादी होने का बिल्ला पश्चिमी ‘विद्वानों’ ने चिपकाया है, जो भारतीय समाज को ठीक से समझ नहीं पाते| आज का सवर्ण भद्रलोक तो अपने बच्चों को अंग्रेजी की जूठन चटा रहा है, जबकि भाषाई गुलामी के समुद्र में पिछड़े, दलित, जनजातियों और अल्पसंख्यकों के बच्चे हिन्दी की लहरें उठा रहे हैं| आज हिन्दी के एक-एक अखबार के लाखों-करोड़ों पाठक कैसे खड़े हो गए हैं? क्या भारत के दूर-दराज गॉंवों, पहाड़ों और जंगलों में रहनेवाले सब लोग सवर्ण हैं, उॅंची जातियों के हैं ? वे लोग टी.वी. के हिन्दी कार्यक्रमों पर लट्टू क्यों हैं ? सच्चाई तो यह है कि भारत की राजभाषा अंग्रेजी है | राज करनेवाले भद्रलोक की भाषा अंग्रेजी है और जन-सामान्य की भाषा हिन्दी है| आनेवाले कुछ वर्षों में इन दोनों वर्गों की जबर्दस्त टक्कर को कोई रोक नहीं पाएगा | ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ वाले जब सत्ता में पहॅंुचे तो वे भी अंग्रेजी की गुलामी करने लगे | वह समॉं भी कितना दिलकश होता है, जब हम एक ईसाई और इतालवी महिला को हिन्दी बोलते हुए सुनते हैं और ‘हिन्दू मेरा मन’ और ‘हिन्दू मेरा तन’ वाले राष्ट्रवादी को अंग्रेजी पढ़ते हुए ! बोलना नहीं आता तो क्या हुआ, पढ़ना तो आता है |
हो सकता है कि नेतृत्व के निकम्मेपन के कारण अभी कुछ वर्षों तक हिन्दी न तो भारत की राजभाषा बन पाए और न ही संयुक्तराष्ट्र की भाषा बन पाए | इससे निराश क्यों हुआ जाए ? हिन्दी राष्ट्रभाषा तो है ही, वह अब विश्वभाषा भी बनती जा रही है| यह क्या कम महत्वपूर्ण है कि बहुराष्ट्रीय निगम और विदेशी चेनल हिन्दी पर जोर दे रहे हैं ? इसके पीछे कोई दयाभाव नहीं है | मजबूरी है | चमत्कार को नमस्कार है | यदि विदेशी व्यापारी और चेनल करोड़ों ग्राहकों और श्रोताओं को रिझाना चाहते हैं तो वे अंग्रेजी का डंडा चलाऍंगे या हिन्दी की बीन बजाऍंगे ? क्या वजह है कि कम्प्यूटरों और मोबाइल फोनों पर हिन्दी दनदना रही है ? यदि ये सब यंत्र अंग्रेजी में चलेंगे तो वे ज्यादा से ज्यादा डेढ़-दो करोड़ लोगों तक पहुंचकर रह जाऍंगे लेकिन अगर वे हिन्दी और भारतीय भाषाओं में चलेंगे तो उनका बाजार 25-30 करोड़ तक फैल सकता है | दुकानदार को पता होता है कि ग्राहक से किस भाषा में बात करनी है | वह सरकारों की तरह ढोंगी और बहरूपिया नहीं होता | हिन्दी के पॉंव में सरकार कितनी ही बेडि़यॉं डाले, बाजार उन्हें चूर-चूर कर डालेगा |
इसी तरह वैश्वीकरण के कारण चाहे अंग्रेजी का दबदबा थोड़ा बढ़ जाए लेकिन दबदबे से लोग आतंकित होकर वैश्वीकरण को ही रद्रद न कर दें, इसीलिए उसे सारी दुनिया में राष्ट्रीय भाषाओं की शरण में जाना होगा| इसके अलावा, भारत-जैसे राष्ट्र ज्यों-ज्यों महाशक्ति के रुतबे को पाते चले जाऍंगे, उनका भाषाई गुलामी का बुर्का खिसकता चला जाएगा| उनकी अस्मिता की खोज इतनी प्रबल होगी कि गुलामतरीन नेतागण भी स्वभाषा की शरण में जाने को मजबूर होंगे | राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा कैसे होगी ? जहॉं चाह होगी, वहॉं राह होगी | तभी पता चलेगा कि हिन्दी की अकूत शब्द-सम्पदा के आगे तथाकथित विश्व-भाषाऍं पानी भर रही हैं, हिन्दी के व्याकरण और लिपि में कितनी सुगमता और वैज्ञानिकता है तथा जिसे हमने अपने राज-काज में नौकरानी बना रखा है, वह सचमुच महारानी है |
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