राष्ट्रीय सहारा, 12 जून 2007 : भारत-अमेरिका वार्ता भंग नहीं नहीं हुई, यह खुशी की बात है| अगर वह सफल हो जाती तो वह दुनिया का आठवाँ आश्चर्य होता| वह सफल हो जाए, यह कौन नहीं चाहेगा? यदि दोनों राष्ट्रों के बीच परमाणु-सहयोग के दरवाज़े खुल जाएँ तो पता नहीं ऊर्जा के कौन-कौन से एरावत भारत में टहलने लगेंगे| परमाणु ऊर्जा की उपलब्धि बिजली और पेट्रोल को पानी की तरह सस्ता कर देगी| भारत के हर घर में दीप जलेगा और हर साइकिल में मोटर लग सकेगी| हर खेत को पानी मिलेगा और हर कारखाने का उत्पादन सवाया-डेढ़ा हो जाएगा| देखते ही देखते भारत यूरोप बन जाएगा| यह सब्जबाघ इतना दिलकश है और यह सपना इतना सुहावना है कि इसे अमली जामा पहनाने के लिए कोई सरकार कितना ही बड़ा समझौता कर सकती है| यदि अमेरिका भारत को परमाणु-ऊर्जा दे दे तो फ्रांस और रूस-जैसे देश भी पीछे क्यों रहेंगे? परमाणु सप्लायर्स ग्रुप के 45 देश भी अपने-अपने भंडार भारत की सेवा में हाजिर कर देंगे| अंतर-राष्ट्रीय परमाणु-ऊर्जा अभिकरण का रहा-सहा संकोच भी खत्म हो जाएगा| भारत को अपने शांतिपूर्ण परमाणु-विकास के लिए जो भी छूट आवश्यक मालूम पड़ेगी, वह यह अभिकरण मुहय्या करेगा| कुछ ही वर्षों में अन्य पाँच राष्ट्रों की तरह भारत भी परमाणु महाशक्ति बन जाएगा| 1974 और 1996 के परमाणु-परीक्षणों के कारण भारत के पाँवों में जो बेडि़याँ बड़ गई थीं, वे टूट जाएँगी|
इस परमाणु स्वाधीनता की नींव भाजपा सरकार ने रखी थी और अब काँग्रेस सरकार उसे परवान चढ़ाने पर कमर कसे हुए है| प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पिछले दो साल से डटे हुए हैं कि किसी तरह अमेरिका के साथ परमाणु-सहयोग का समझौता हो जाए तो भारत को वही रूतबा मिल जाए, जो अन्य पाँच महाशक्तियों को मिला हुआ है| दूसरे शब्दों में भारत को परमाणु अछूतों की श्रेणी से बाहर निकाल लिया जाए| भारत के पास बम आ गया है लेकिन अब भी उसकी हैसियत गैर-बमवाले राष्ट्रों की तरह है| उस पर वे ही कानून-क़ायदे लागू हो रहे हैं, जो गैर-बमवाले राष्ट्रों पर होते हैं| इस स्थिति को बदलना ही भारत की वर्तमान परमाणु-नीति का सर्वोच्च लक्ष्य है| याने भारत चाहता है कि परमाणु अप्रसार-संधि पर हस्ताक्षर किए बिना ही उसे उस संधि का सदस्य मान लिया जाए या अगर उसे हस्ताक्षर करने ही हों तो वह बमधारी राष्ट्र की तरह करे| 18 जुलाई 2005 को भारत अमेरिका संयुक्त घोषणा में से यही आशा बँधी थी कि उक्त लक्ष्य की पूर्ति हो जाएगी| 2 मार्च 2006 के अमेरिका के अनुरोध को मानकर भारत ने अपने परमाणु संस्थानों का विभाजन सैन्य और असैन्य श्रेणी में भी कर दिया| अर्थात्र अमेरिका केवल असैन्य परमाणु-संस्थानों को सहायता देगा और भारत उन पर अन्तराष्ट्रीय निगरानी भी स्वीकार करेगा| भारत ने परमाणु-परीक्षणों पर रोक की एकतरफा घोषणा पहले से कर ही रखी थी| लगता था कि भारत और अमेरिका, दोनों राष्ट्रों की शर्तें पूरी हो गई हैं और इस समझौते से दुनिया में नई हवा बेहगी|
इन दो वर्षों में दोनों देशों के बीच चार लंबी वार्ताएँ हो चुकी हैं, दोनों देशों के नेता आपस में मिलते रहें, एक-दूसरे को पत्र् भेजते रहे हैं, फोन पर बात करते रहे हैं और अपनी-अपनी संसद में बयान भी देते रहे हैं लेकिन वार्ता की सुरंग काफी लंबी होती जा रही है और दूर-दूर तक प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ रही है| अमेरिकी अधिकारी निकोलस बर्न्स और हमारे विदेश सविच शिव शंकर मेनन के बीच हुई इस चौथी वार्ता में कौन-कौन से मामले सुलझ गए, इसका कोई झीना-सा संकेत भी दिखाई नहीं पड़ रहा है| उलझाव के मामले कई हैं लेकिन फिलहाल सिर्फ एक मामला ज्यादा उछल रहा है| वह यह है कि अमेरिका से आए परमाणु ईंधन को इस्तेमाल करने के बाद भारत उसे संशोधित करके दुबारा इस्तेमाल कर सकेगा या नहीं| वह ईंधन भारत में ही पड़ा रहेगा| उसे अमेरिका वापस भी नहीं लेगा| ऐसे ईंधन को पटके रखना भी काफी मँहगा और खतरनाक खेल है| अमेरिका ने जापान और यूरेटम को इस तरह के ईंधन में छूट दी है तो वह भारत को क्यों नहीं देता? चीन के साथ 1985 में हुए इसी तरह के समझौते में अमेरिका ने एक चोर-गली निकाल रखी है तो भारत के लिए उसने ऐसा दमघोंटू प्रावधान क्यों कर रखा है? यदि राष्ट्रपति बुश का बस चले तो वे भारत को पूरी छूट दे दें लेकिन बुश और उनकी सरकार के हाथ-पाँव एक कानून ने कसकर बाँध दिए हैं| 18 दिसंबर 2006 को काँग्रेस द्वारा पारित इस कानून का नाम है, ”हेनरी जे.हाइड अमेरिका-भारत शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा सहयोग अधिनियम|”
यह अधिनियम सिर्फ परमाणु ईंधन के दुबारा इस्तेमाल पर ही प्रतिबंध नहीं लगाता| यह अनेक कमरतोड़ शर्तों का कड़वा दस्तावेज़ है| इस कानून के कारण और उसके पहले अमेरिकी अफसरों और सांसदों (कांग्रेसमेनों और सीनेटरों) द्वारा किए गए मुँहफट बयानों के कारण भारत के प्रधानमंत्र्ी को भरतीय संसद के सामने दो बार स्पष्ट आश्वासन देना पड़ा| उन्हें कहना पड़ा कि अमेरिका के साथ वे जो ‘123 समझौता’ कर रहे हैं, उसमें भारत की परमाणु स्वायत्तता में वे कोई भी कटौती नहीं होने देंगे| अमेरिका की मन्शा पर इतना शक फैल गया है कि भारत के अनेक परमाणु वैज्ञानिकों, पूर्व राजदूतों और परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्षों ने इस भारत-अमेरिकी समझौते के विरूद्घ बयान जारी किए और लेख लिखे| राष्ट्रपति बुश, उनकी विदेश मंत्र्ी कंडोलीज़ा राइस और अफसर बर्न्स के इस आश्वासन पर कोई भरोसा नहीं कर रहा है कि भारत को जब भी परमाणु ईंधन के संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी, अमेरिकी राष्ट्रपति उसे स्वविवेकानुसार स्वीकृति दे देंगे| अब यदि भारत चाहता है कि उसके पुनसंशोधन के अधिकार को स्पष्ट रूप से मान्य किया जाए| तारापुर के ईधन में वह पहले ही अपने हाथ जला चुका है| भारत अमेरिका से दुबारा दाँव खा गया तो जनता इस सरकार को माफ़ नहीं करेगी|
ईधन का मामला अपनी जगह है| उससे अधिक संगीन शर्त यह है कि अमेरिकी काँग्रेस हर साल इस समझौते की समीक्षा करेगी| और यह समीक्षा हाइड अधिनियम के तहत होगी| दूसरे शब्दों में भारत की परमाणु सहायता अचानक रोक देने के असंख्य बहाने उसके पास होंगे| जैसे यदि भारत ने कोई परमाणु-विस्फोट कर दिया या कोई परमाणु-उपकरण या ईंधन या शस्त्र् किसी अन्य राष्ट्र कोे दे दिया या ईरान-जैसे किसी अमेरिका-विरोधी राष्ट्र के साथ संबंध भंग नहीं किए या असैन्य संयंत्रें की चीजें सैन्य-संयंत्रें में इस्तेमाल कर लीं आदि! किसी बहाने से अगर समझौता टूट गया तो अरबों-खरबों रूपयों के ये परमाणु-संस्थान रातोंरात कबाड़-खानों में बदल जाएँगे और अमेरिका की देखादेखी अन्य परमाणु-राष्ट्र भी भारत को ”दोषी” घोषित कर देंगे| भारत यह जुआ आखिर क्यों खेले? यह समझौता भारत इसलिए कर रहा है कि उसे परमाणु स्वाधिनता मिले लेकिन इसके प्रावधान ऐसे है कि वे भारत को परमाणु पराधीनता की खाई में ढकेल देंगे| अमेरिकी दबाब में आकर भारत को पता नहीं कहाँ-कहाँ घुटने टेकने पड़ेंगे इधर दो बार ईरान के सवाल पर अन्तराष्ट्रीय परमाणु-ऊर्जा अभिकरण में भारत शीर्षासन कर चुका है| इसी प्रकार कश्मीर के सवाल पर वह मुर्शरफ की फौजी सरकार के साथ पता नहीं क्या, खुसुर-पुसुर कर रहा है| एशियाई महाशक्ति होने के नाते उसे अफगनिस्तान और एराक़ में जो भूमिका निभानी चाहिए, वह नहीं निभा रहा है| इस समझौते के कारण वह अमेरिका का अनुचर-सा दिखाई पड़ रहा है| इस विदेश नीति संबंधी मामले का असर भारत की आन्तरिक राजनीति पर भी पड़ रहा है| अनेक समझदार लोग मान रहे हैं कि 21वीं सदी का भारत अपनी राजनीति, अपनी अर्थ-व्यवस्था और अपने समाज को अमेरिकी ढांचे में ढाल रहा है| वह विश्व बैंक के हाथ का खिलौना बनता जा रहा है| यह सोच अति वादी हो सकता है लेकिन कोई लोकतांत्र्िक सरकार ऐसा समझौता क्यों करे, जिससे भारत का नुक्सान तो हो ही, उसकी छवि भी विकृत हो जाए| शायद इसीलिए यह चौथी वार्ता भी टल गई है और अगले सप्ताह जी-आठ की बैठक में भी इस मसले को टाल दिया जाएगा| हिरना, समझ-बूझ बन चरना!
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