नवभारत टाइम्स, 9 मई 2009। अमेरिका की संसद अपने मंत्रियों और अफसरों के साथ किस कड़ाई से पेश आती है, इसका साक्षात नमूना हाल में देखने को मिला। वॉशिंगटन डीसी के कांग्रेस भवन में विदेशी मामलों की कमिटी और रिचर्ड हॉलब्रुक के बीच दो-ढाई घंटे तक कड़े सवाल-जवाब चलते रहे। हॉलब्रुक को राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के लिए अपना विशेष दूत नियुक्त किया है। पिछले चार महीने में वे कई बार इन देशों का दौरा कर चुके हैं। इस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई भी वॉशिंगटन आए हुए हैं।
हॉलब्रुक ने कमिटी के अध्यक्ष हार्वर्ड बर्मन और कांग्रेसमैन गैरी एकरमेन के प्रश्नों के जवाब में कहा कि इस बार पाक और अफगानिस्तान के बीच कुछ ऐसा हो रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ। पूर्व राष्ट्रपति बुश ने दोनों देशों के नेताओं से पहले भी बात की थी, लेकिन अलग-अलग। उन्हें कभी साथ बिठाकर बात नहीं की। इस बार ओबामा दोनों को साथ बिठा रहे हैं और उनके गृह, वित्त तथा कृषि मंत्री भी साथ-साथ बैठ रहे हैं।(हॉलब्रुक से पूछा जाना चाहिए था कि दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों को साथ क्यों नहीं बिठाया गया?)
हॉलब्रुक को इस त्रिपक्षीय वार्ता के सफल होने की गहरी आशा है। उनका कहना था कि वियतनाम और अफगानिस्तान के युद्ध एक जैसे हैं। जैसे वियतनाम अमेरिका की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा बन गया था, बिल्कुल वैसे ही अफगानिस्तान बन गया है। उसी के कारण पहले 9/11 हुआ, बेनजीर की हत्या हुई और मुंबई पर हमला हुआ। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि अमेरिका, भारत और पाकिस्तान- तीनों का दुश्मन एक ही है और तीनों देश एक ही तरफ हैं। लेकिन अफसोस है कि पाकिस्तान अब भी भारत को ही अपना मुख्य खतरा मानता है। अब भी वह अपनी पूर्वी सीमा से फौजें हटाने को तैयार नहीं है। तीनों देशों का दुश्मन समान है, तो उनकी रणनीति भी समान होनी चाहिए।
कई सांसदों ने पूछा कि अगर पाक तालिबान से समझौते कर रहा है, पाक के गुप्तचर विभाग (आईएसआई) की उनसे सांठगांठ है, पाक की फौज सरकार को दबाए हुए है, परमाणु हथियार सुरक्षित नहीं हैं, ए.क्यू, खान को अमेरिका के हवाले नहीं किया गया है, तो अमेरिका वहां अपना पैसा और खून क्यों बहा रहा है? क्या जरदारी की सरकार गिरने वाली है? क्या अमेरिका नवाज शरीफ से हाथ मिला रहा है? क्या पाकिस्तान टूटने वाला है? कांग्रेसमैनों (सांसदों) ने सवालों की झड़ी लगा दी। हॉलब्रुक ने हर सवाल का जवाब बहुत ही सधे हुए अंदाज में दिया।
उन्होंने कहा कि स्वात में हुए समझौते की सर्वत्र निंदा हुई है। खुद जरदारी उससे नाराज थे। पाकिस्तान का भद्रलोक कुपित था। भारत और अमेरिका को भी धक्का लगा। लेकिन हॉलब्रुक यह नहीं बता सके कि पाकिस्तान ने आखिर यह किया क्यों? इसी प्रकार आईएसआई की दोरंगी नीति पर भी हॉलब्रुक इधर-उधर की सफाई पेश करते रहे। उन्होंने कहा कि आईएसआई के मुखिया जनरस पाशा ने स्वीकार किया है कि अब उनकी कोई साठगांठ नहीं है (यानी पहले थी)। हॉलब्रुक ने कहा कि यह सबको पता है। अमेरिका, आईएसआई और मुजाहिदीन-तालिबान की मिलीभगत बहुत दिनों तक चलती रही।
हॉलब्रुक ने अपने सांसदों को भ्रम दूर करते हुए बताया कि पाकिस्तान के भंग होने का कोई खतरा नहीं है। वे जरदारी और लोकतंत्र का पूरा समर्थन कर रहे हैं। वे नवाज शरीफ को लाने की कोई साजिश नहीं कर रहे हैं। वे लोकप्रिय नेता हैं। उनके छोटे भाई पंजाब के मुख्यमंत्री हैं। उनके साथ हमारे सहज संबंध हैं। यह ठीक है कि फौज चुनी हुई सरकार को गिरा सकती है, लेकिन हम उसके विरुद्ध हैं। हमारी पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान में स्थिरता हो, मजबूती हो, विकास हो। इसीलिए हमने अगले पांच साल में 17.5 अरब डॉलर और अन्य देशों ने 14 अरब डॉलर देने की घोषणा की है। इस पर एक सांसद ने पूछा कि जिस देश में परमाणु हथियार किसी के भी हाथ में जा सकते हैं, उस देश पर हमारा पैसा खर्च करने की इजाजत आपको किसने दी है?
आप बताइए कि पाक के परमाणु हथियार सुरक्षित हैं या नहीं? इस पर हॉलब्रुक जरा सकपकाए और बोले कि इस विषय पर केवल गुप्त सत्र में ही बात हो सकती है। (यह सत्र खुला था। इसमें पत्रकारों के अलावा करीब डेढ़ सौ अमेरिकी नागरिक और कई विदेशी भी बैठे हुए थे।) सांसदों ने कहा कि पाक सरकार ए.क्यू. खान को हमारे हवाले क्यों नहीं करती? इस पर हॉलब्रुक ने कहा कि इस मुद्दे को हम अपनी कसौटी नहीं बना सकते। अपने सामरिक हितों को हम इस मुद्दे के हाथों गिरवी नहीं रख सकते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन है।
एक सांसद ने पूछा कि जो देश अपने यहां मदरसे चला रहा है और जिसने लाल मस्जिद के अपराधियों को रिहा कर दिया, उसको हम अपने कंधों पर क्यों उठाए हुए हैं? हॉलब्रुक ने कहा कि मदरसों के विरुद्ध कांग्रेस कुछ कानून बनाए, तो अच्छा रहेगा और जहां तक लाल मस्जिद का सवाल है, उसके अपराधियों को अदालत ने ही रिहा कर दिया। सरकार क्या कर सकती थी? इसी प्रकार पाकिस्तान को ए-16 युद्धक विमानों की सप्लाई पर भी सांसदों ने हॉलब्रुक को काफी रगड़ा। एक सांसद ने पूछा कि एफ-16 विमान क्या स्वात घाटी में उड़ाए जा सकते हैं? क्या वे तालिबान और अल कायदा के विरुद्ध इस्तेमाल होंगे? वे तो भारत के विरुद्ध इस्तेमाल हो सकते हैं। इस पर हॉलब्रुक ने कहा कि अमेरिकी सरकार ने कोई पक्का फैसला नहीं किया है। भारत और पाकिस्तान की समस्या बहुत पुरानी है। भारत से पाकिस्तान का ध्यान हटाना जरूरी है। अफगानिस्तान की समस्या हल करने के लिए भारत को जोड़ना जरूरी है, लेकिन भारत ने अभी कोई साफ जवाब नहीं है, क्योंकि भारत अभी चुनावी दौर में है।
हॉलब्रुक ने सांसदों को आश्वस्त किया कि अभी अफगानिस्तान में जो नए 21 हजार जवान भेजे जा रहे हैं, वे तालिबान को हराने में सफल होंगे। वियतनाम और इराक के मुकाबले अफगान-संकट अधिक विकट है। लड़ाई लंबी चल सकती है। बुश प्रशासन ने अफगानिस्तान के आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। सरकार को विदेशी मदद का सिर्फ 10 प्रतिशत हिस्सा ही मिलता है।
कोशिश करेंगे कि कम से कम 40-50 प्रतिशत हिस्सा मिले। सुरक्षा के साथ-साथ विकास पर भी ध्यान दिया जाएगा। यह सवाल किसी सांसद ने पूछा और हॉलब्रुक ने भी नहीं बताया कि अफगानिस्तान की मदद कितनी बढ़ाई जा रही है? तालिबान के नाम पर पाकिस्तान के लिए तो डॉलरों की झड़ी लग गई है, लेकिन अफगानिस्तान के नाम पर सूखा ही सूखा है। इस कांग्रेसनल हियरिंग में कश्मीर का कोई जिक्र नहीं हुआ। इससे कश्मीरी नेता काफी निराश से लगे।
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