मैं साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष डॉ. गोपीचंद नारंग का हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने 1857 जैसे महत्वपूर्ण विषय पर मुझे आज यहाँ बोलने का मौका दिया| साहित्य महोत्सव की इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश के चुने हुए विद्वान्र और साहित्यकार भाग ले रहे हैं| आज यहाँ उच्च-स्तर के इतने बौद्घिकों को देखकर कोई भी वक्ता पर्याप्त प्रोत्साहित हो सकता है| यही तथ्य उसे घबरा देने के लिए भी काफी हो सकता है, लेकिन आप सब मित्र्गण हैं, इसीलिए मैं बिना विशेष उत्साहित हुए और बिना घबराए हुए आपसे 1857 के बारे में कुछ बात करना चाहता हूँ|
सबसे पहले तो मुझे इसी पर आपत्ति है कि 1857 की घटनाओं को हम ‘गदर’, ‘बगावत’, ‘विद्रोह’, ‘विप्लव’, ‘सिपाही-युद्घ’, ‘खूनी-गड़बड़’ या ‘खून-खराबा’ आदि कहें| 1857 को मैं स्वाधीनता संग्राम कहता हूँ| उसके चार मोटे-मोटे कारण हैं| एक तो मज़हब, दूसरा ज़ात और तीसरा वर्ग–भारतीय समाज को बाँटनेवाले इन तीनों कारणों का 1857 में अतिक्रमण हो गया था| चौथा यह संग्राम केवल मेरठ, दिल्ली, कानपुर और झांसी तक सीमित नहीं था| इसकी लहरें पेशावर से कर्नाटक तक और कच्छ से कछार तक पहुँच गई थीं| इस संग्राम ने सारे भारत को जगाया| इसी संग्राम ने पहली बार आम लोगों में अखिल भारतीयता का भाव पैदा किया| उन्हें जात, मज़हब और वर्ग के बंधनों से ऊपर उठाया| राष्ट्र की जो सनातन चेतना शताब्दियों से हमारी परंपरा में जीवित थी, उसे 1857 ने प्राणवंत बनाया| यहाँ मैं आपको 1857 के कुरुक्षेत्र् में नहीं ले चल रहा हूँ| मैं आपको यह भी नहीं बताने जा रहा हूँ कि एक मुस्लिम बादशाह को किस तरह देश के समस्त हिंदुओं और अनेक राजा-महाराजाओं ने भारत का सम्राट घोषित किया था और देश के मुसलमानों ने रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे जैसे हिंदु योद्घाओं को मुजाहिद की उपाधि से नवाजा था| मेरे पास इतना समय नहीं कि मैं आपको बताऊँ कि कैसे भारत के अमीर और गरीब, स्त्री और पुरुष, द्विज और शूद्र, किसान और जवान, ग्रामीण और शहरी–सबने मिलकर अंगे्रजी शासन के विरुद्घ बिगुल बजा दिया था| मैं चाहूँ तो इन मुद्दों पर घंटों बोल सकता हूँ| यहाँ मेरा लक्ष्य आपको केवल इतना बताना है कि 1857 कोई मामूली विद्रोह नहीं था| यह संग्राम अंगे्रज का तख्ता नहीं पलट पाया, यह ठीक है लेकिन इसने ही उसके तख्ता-पलट की मज़बूत नींव रख दी थी| क्या किसी संग्राम को गदर और संघर्ष को गद्दारी इसीलिए कह देंगे कि वह तख्ता-पलट नहीं कर सका ? क्या हम किसी घटना पर ऐसे नाम जड़ देने के लिए स्वतंत्र् हैं, जो उसे हमेशा के लिए बदनाम कर दें ? भारत के लोगों ने कौन-सी गद्दारी की ? क्या उन्होंने अंग्रेज-भक्ति की कोई शपथ ली थी, जिसे 1857 में भंग कर दिया ? नाम गलत रख देने से क्या काम भी गलत हो जाता है ?
1857 के संग्राम को ये गलत-सलत नाम अंगे्रजों ने ही दिए थे| जिन अंगे्रज अफसरों ने 1857 की घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था या जो उनके भुक्तभोगी थे, उन्होंने अपना विवरण अपने ऊँचे अफसरों को भेजते समय इन शब्दों का प्रयोग किया था| लंदन के अखबारों की नज़र में भी 1857 केवल गदर था| बि्रटिश सरकार की नज़र में वह गदर और गद्दारी, दोनों था| अंगे्रज इतिहासकारों ने भी अपनी पुस्तकों के जो शीर्षक दिए, उनमें भी इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया गया है| 1857 पर सबसे पहले लिखी गई जॉन काये की पुस्तक का शीर्षक था, ‘ए हिस्टरी ऑफ द सिपॉय वार इन इंडिया 1857-8’| जॉन काये के आकस्मिक निधन के बाद जॉर्ज मालेसन ने उसी पुस्तक के जो अगले खंड प्रकाशित किए, उनका नाम रख दिया, ‘हिस्टरी ऑफ द इंडियन म्यूटिनी’| काये ने जिसे युद्घ कहा था, उसे मालेसन ने म्युटिनी बना दिया| यही शब्द म्युटिलेट होता हुआ भारतीय इतिहासकारों की कलम से भी चिपक गया| चाहे डॉ. रमेशचंद्र मजूमदार हों, डॉ. शशिभूषण चौधरी हों या डॉ. सुरेन्द्रनाथ सेन हों, लगभग सभी भारतीय इतिहासकारों ने 1857 को भारत का स्वाधीनता-संग्राम कहने में कुछ न कुछ संकोच दिखाया है| व्यावसायिक इतिहासकार अपने इस संकोच को उचित ठहराने के लिए कुछ ठोस तर्क अवश्य उपस्थित करते हैं लेकिन मैं उनकी विद्वता का पूर्ण सम्मान करते हुए अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि भारत की आज़ादी के साठ साल के बावजूद हमारे इतिहासकार और राजनीतिशास्त्र्ी अपनी औपनिवेशिक मनोवृत्ति से मुक्त नहीं हो पाए हैं| अंगे्रजों के प्रयाण के बाद भारत में से राजनैतिक उपनिवेशवाद का अंत तो हो गया, लेकिन बौद्घिक उपनिवेशवाद दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है| 1857 की औपनिवेशिकता के अनेक निन्दनीय अंश आज भी हमारी चेतना और व्यवहार के अभिन्न अंग बने हुए हैं| केवल अंग्रेजी स्रोतों के आधार पर लिखे गए शोध-ग्रंथों से आप क्या आशा कर सकते हैं ? कुछ विलायती और कुछ भारतीय स्रोतों के आधार पर लिखी गई ताज़तरीन किताब ‘द लास्ट मुगल’ में भी विलियम डेलरिंपल ने अनेक गंभीर भूलें छोड़ दी है| उनके विश्लेषण और निष्कर्षों पर भी काये और मालेसन के भूत मंडराते हुए दिखाई पड़ते हैं| अंगे्रजी भाषा के स्रोतों की मजबूरी तो कार्ल मार्क्स और विनायक दामोदर सावरकर के सामने भी थी लेकिन ये दो महापुरुष ऐसे हुए, जिन्हें औपनिवेशिक मनोवृत्ति जकड़ नहीं सकी| एक सज्जन जर्मन थे और दूसरे भारतीय ! दोनों में से अंग्रेज कोई नहीं था और यह भी कह दूँ कि दोनों में से कोई भी बाक़ायदा इतिहासकार भी नहीं था| दोनों ही मंत्र्-द्रष्टा थे| मार्क्स ने तो 1857 की घटनाओं पर उसी समय लिखा| ‘न्यूयॉर्क डेली टि्रब्यून’ में छपे अपने लेखों में मार्क्स ने ठोस आँकड़ों और तथ्यों के आधार पर सिद्घ किया कि अंग्रेजी अत्याचारों के कारण संपूर्ण भारत बारूद के ढेर पर बैठा हुआ था| मार्क्स ने साफ़-साफ़ लिखा कि 1857 भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम था| यही शीर्षक अपने सवा छह सौ पृष्ठों के ग्रंथ का विनायक दामोदर सावरकर ने दिया था| 1857 के ठीक 50 साल बाद और अब से ठीक एक सौ साल पहले 1907 में 24 वर्षीय सावरकर ने ‘1857 च्या स्वातंत्र््रय समरांचा इतिहास’ नामक ग्रंथ मराठी में लिखा| यह अमर ग्रंथ छपने के पहले ही प्रतिबंधित हो गया| इसका अंग्रेजी अनुवाद यूरोप में छपा| यह ग्रंथ गदर पार्टी, आजाद हिंद फौज और सशस्त्र् क्रांतिकारियों की भगवद्गीता बन गया| मार्क्स और सावरकर की इस जुगलबंदी में एक और नाम जोड़ा जा सकता है| वह है–अर्नेस्ट जोन्स का ! जोन्स एक लंदनवासी अंग्रेज था| लेखक और कवि ! वह भी इतिहासकार नहीं था| यह अर्नेस्ट जोन्स ही था कि जिसने बि्रटिश साम्राज्य को शीर्षासन करवा दिया था| उसी ने लिखा था : यह सत्य है कि बि्रटिश साम्राज्य पर कभी सूर्य अस्त नहीं होता, लेकिन यह भी सत्य है कि उसके साम्राज्य में खून की नदियाँ कभी नहीं सूखती| यदि आप मार्क्स, जोन्स और सावरकर–इन तीनों की कृतियाँ पढ़ें तो आप द्रवित हुए बिना नहीं रहेंगे| इनकी रचनाएँ इतिहास का इतिहास हैं और साहित्य का साहित्य है| वे इतिहास और साहित्य का अद्रभुत समन्वय हैं| इसी प्रकार मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ गालिब की ‘दस्तंबू’ (डायरी) और विष्णु भट्ट गोडशे का ‘माझा प्रवास’ (यात्र संस्मरण) 1857 का आँखों देखा हाल उपस्थित करते हैं| उर्दू और मराठी की इन कृतियों में रजनीकांत गुप्ता कृत बाद की एक बांग्ला कृति ‘सिपाही युद्घेर इतिहास’ (1876) को भी जोड़ा जा सकता है| सावरकर को इस कृति से काफी प्रेरणा मिली थी| समकालीन कृतियों में सर सय्यद अहमद खान की ‘असबाबे बगावते हिंद’ भी है लेकिन उसमें एक राजभक्त की चिकनी-चुपड़ी बातों के अलावा क्या है ?
इसमें शक नहीं कि पिछले पचास वर्षों में अनेक इतिहासकारों ने उन्हीं अंग्रेजी स्रोतों को दुबारा खंगाला है और उनमें नए भारतीय स्रोतों को भी जोड़ा है| एरिक स्टोक्स, रुद्रांशु मुखर्जी, रजत राय, ताप्ती राय, गौतम चक्रवर्ती जैसे इतिहासकारों और पी.सी. जोशी जैसे विद्वानों ने 1857 की नई व्याख्याएँ की हैं| हिंदी और बांग्ला की अनेक पत्र्-पत्रिकाओं ने इधर लोक-साहित्य के आधार पर 1857 के इतिहास को नए आयाम प्रदान किए हैं| इन नए अनुसंधानों ने मार्क्स, जोन्स, सावरकर, ग़ालिब, गोडशे और गुप्ता की परंपरा को आगे बढ़ाया है| यह काम कुछ हद तक पं. सुंदरलाल और डॉ. रामविलास शर्मा पहले ही कर चुके थे| 1857 के भारतीय स्वाधीनता संग्राम से संबंधित लाखों पृष्ठों की सामग्री अब भी अछूती ही पड़ी है| उर्दू, फारसी और हिंदी में ही नहीं, पश्तो, पंजाबी, बलूच, बांग्ला, मराठी, गुजराती, ओडि़या, तेलुगू, कन्नड़, तमिल, असमिया आदि भाषाओं में अब भी अनेक पंचायतों के बही-दस्तरे और तत्कालीन पत्र्-व्यवहार, मुनादियाँ, किंवदंतियाँ, किस्से-कहानियाँ, कविताएँ, डायरियाँ, यात्र-वृत्तांत आदि खोजे जा सकते हैं| अब तक स्थानीय बोलियों में भी बहुत कम अनुसंधान हुआ है| लोक-कथाएँ, लोक-गीत, लोक-कलाएँ और लोक-परंपराएँ हमारे स्वाधीनता संग्राम की महान और प्रामाणिक स्रोत बन सकती हैं| शिष्ट साहित्य में हमें 1857 का दृष्टा-भाव जहाँ-तहाँ मिलता है, लेकिन लोक-साहित्य में हमें सृष्टा-भाव मिलेगा| लोक-साहित्य की रचना प्राय: उन लोगों ने की है, जिन्होंने सीधे स्वातन्त्र्रय-समर में खांडा खड़काया है या जो सीधे स्वतंत्र्ता-सेनानियों से जुड़े रहे हैं| अभी सिर्फ डेढ़ सौ साल ही बीते हैं| इसके पहले कि हमारे प्रथम स्वाधीनता संग्राम के मूल सूचना-स्रोत बिल्कुल ही सूख जाएँ, हमारे विश्वविद्यालयों, अकादमियों, शोध-संस्थानों और सरकारों को उनके दोहन के लिए कटिबद्घ हो जाना चाहिए| जैसा उत्साह 1857 में डिजरैली और बि्रटिश संसद ने जॉन काये के लिए और 1957 में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने डॉ. सुरेन्द्रनाथ सेन के लिए दिखाया था, आज वैसा ही उत्साह सैकड़ों शोधार्थियों के लिए उक्त संस्थाओं की ओर से दिखाया जाना चाहिए| यदि 1857 पर व्यापक और गहन शोध-कार्य हों तो जो नक्शा उभरेगा, वह भारत के लिए ही नहीं, उन सब राष्ट्रों के लिए भी लाभप्रद होगा, जो आज भी विदेशी वर्चस्व या सैन्य हस्तक्षेप से उत्पीडि़त हैं| वह अत्याचारी और अत्याचारग्रस्त, दोनों तरह के राष्ट्रों को सही दिशा दिखाएगा| अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थी होने के नाते मैं अक्सर सोचता हूँ कि यदि 1857 का विशद्र और सांगोपांग विश्लेषण दुनिया के सामने रहा होता तो शायद सोवियत संघ वह गलती नहीं करता जो उसने अफगानिस्तान में की थी और जो आजकल अमेरिका एराक़ में कर रहा है|
यह खोज साहित्य और इतिहास के रिश्तों में भी नई चमक भर देगी| इतिहास-लेखन के सीधे स्रोत जब हाथ नहीं लगते तो पता चलता है कि स्वयं साहित्य इतिहास का कितना महत्वपूर्ण स्रोत है| इतिहास और साहित्य की जुगलबंदी से कौन परिचित नहीं है ? कभी इतिहास आगे चलता है तो कभी साहित्य ! दोनों के हमकदम होने के तो असंख्य उदाहरण हैं| 1857 का ज़माना उर्दू और फारसी का ज़माना था| उस दौर के साहित्य में 1857 की अनुगूंज जमकर हुई थी| उसका ब्यौरा विस्तार से हमारे सामने आ चुका है| उस समय ‘पयामे-आजादी’ और ‘दिल्ली उर्दू अखबार’ आम लोगों के दर्द के दर्पण बनकर उभरे| अतहर अब्बास रिज़वी के ग्रंथों से साहित्य और संग्राम की जुगलबंदी का एक आश्चर्यजनक नक्शा हमारे सामने उभरता है| उर्दू-साहित्य के प्रकांड पंडित और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ. गोपीचंद नारंग ने उसे आज अपने अध्यक्षीय भाषण में बहुत ही सरल और सुंदर तरीके़ से पेश किया है| अगर आप सोचते हों कि उसी तरह के उद्घरण मैं हिंदी साहित्य से निकालकर आपके सामने रख दूँगा तो आपको शायद निराशा होगी| इसका पहला कारण तो यह है कि 1857 के समय हिंदी का तथाकथित शिष्ट साहित्य शैशवावस्था में था| भारतेदु-युग का कोई भी साहित्यकार वयस्कता भी प्राप्त नहीं कर सका था| स्वयं भारतेंदु 1857 में सात साल के थे| भारतेंदु युग के साहित्यकारों ने स्वयं भारतेंदु की तरह ‘भारत-दुर्दशा’ का वर्णन करने में कोई कोताही नहीं की, लेकिन 1857 के बाद बने अत्यंत कठोर कानूनों के कारण न तो वे 1857 का महिमा-मंडन कर सके और न ही जनोत्थान का स्पष्ट आह्नान कर सके| उनकी मजबूरियाँ भी वही थीं, जो ग़ालिब और सर सय्यद अहमद की थीं| अंग्रेज की कृपाकांक्षा और विरोध, ये दोनों तलवारें एक म्यान में कैसे रह सकती थीं ? इसके बावजूद हिंदी के गद्य और पद्य में अनेक मर्मस्पर्शी उदाहरण मिलते हैं| साहित्य के राजपथ पर जैसे दृश्य दिखाई पड़ते हैं, उससे अधिक रोमांचक दृश्य उसके गली-कूचों में देखने को मिल जाते हैं| हिंदी लोक साहित्य के स्रोतों से यह भी पता चलता है कि 1857 का कारण केवल गाय और सूअर की चर्बी के कारतूस नहीं थे और वह केवल दीन और धर्म का मामला भी नहीं था| यह मामला 1757 में हुए पलासी के युद्घ से लेकर 1857 तक याने पूरे सौ साल के सर्वांगीण शोषण का मामला था| अंगे्रजों को अपने सौ साल के प्रभुत्व में कम से कम सौ बगावतों का सामना करना पड़ा है| संन्यासी-विद्रोह (1763-1800) से लेकर कूका-विद्रोह (1857-72) के बीच भारत का कौन-सा हिस्सा है, जहाँ खून की नदियाँ नहीं बहीं ? अटक से कटक तक, केरल से कश्मीर तक और पेशावर से काबुल तक अंग्रेज़ों के विरुद्घ गाँव-गाँव में बारूद का ढेर लग गया था| अंगे्रज के विरुद्घ बगावत की बत्ती 10 मई के बहुत पहले से सुलग रही थी| इसका प्रमाण महाकवि भूषण की ये पंक्तियाँ हैं—
करनाटहबसफिरंगहूंविलायतबलखरूमअरितियछतियादलतिहै
पेसकसें भेजति विलायत पुर्तगाल सुनि के सहमि जात कर्नाटक थली है|
गोडवानोतिलंगानोंफिरंगानोकरनाटरुहिलानोरुहिलनहियेहहरतहैं
बिलखि बदन बिलखात बिजैपुरपति फिरत फिरंगिन की नारी फरकति हैं|
पद्रमाकर तो प्रेम और शृंगार के कवि थे लेकिन ज़रा देखिए कि फिरंगियों के विरुद्घ वे भी कैसे दहाड़ रहे थे| उन्होंने दौलतराव सिंधिया को अंग्रेजों से लड़ने के लिए ललकारा–
मीनागढ़ बंबई सुमंद मंदराज, बंग,
बंदर को बंद करि बंदर बसावेगो|
कहे पदमाकर कसकि काश्मीर हूं को,
पिंजरसों घेरि के कलिंजर छुड़ावेगो||
बांका नृप दौलत अलीजा महाराज कबौ,
साजि दल झपटि फिरंगनि दबावैगो|
दिल्ली दहपट्टि पटना हुँ को झपट्टि करि,
कबहुंक लता कलकत्ता को उड़ावैगो||
जाहिर है कि हिंदी की यह आक्रामक मुद्रा उर्दू या फारसी में दिखाई नहीं देती, लेकिन उनकी मर्मांतक बेबसी को होंठों पर लाने में हिंदी भी पीछे नहीं है| ग्वाल कवि अपने वर्षा वर्णन में भारत के ‘भूपति उमंगी कामदेव जोरजंगी’ राजाओं के सामने मुजरा करनेवाले ‘पावस फिरंगी’ अंग्रेजों का जि़क्र करते हैं| इन्हीं चरणचाटू अंग्रेजों के राज से तंग आकर कवि घासीराम क्या कहते हैं—
”छाड़ कै फिरंगन को राज में सुधर्म काज,
जहाँ होत पुण्य आज चलो वह देश को|”
बाबा दीनदयाल गिरि लिखते हैं–
”पराधीनता दुख महा सुखी जगत स्वाधीन|
सुखी रमत सुक बन विषै कनक पींजरे दीन||”
यह ठीक है कि दिल्ली और उसके आस-पास 1857 के समय की खड़ी बोली के उल्लेखनीय उदाहरण कम ही मिलते हैं, जैसे कि नफ़ीस उर्दू में मिलते हैं, लेकिन राजस्थान, बिहार, मालवा आदि क्षेत्रें के साहित्य में स्वातंत्र््रय की तलवार वैसी ही झनझना रही थी, जैसी कि वह मेरठ, कानपुर और दिल्ली की बस्तियों में लपलपा रही थी| महान स्वातंत्र््रय-योद्घा कुँवरसिंह की प्रशस्ति में लिखा रामकवि का यह कवित्त देखिए–
”जैसे मृगराज गजराजन के झुँडन पै प्रबल प्रचंड सुंड खंडत उदंड है|
जैसे बाजि लपकि लपेट के लवान दल मलमल डारत प्रचारत विहंड है||
कहें रामकवि जैसे गरूड़ गरव गहि अहि-कुल दंडि दंडि मेटत घमंड है|
तैसे ही कुँवरसिंह कीरति अमर मंडि फौज फिरंगानी की करी सुखंड खंड है||”
कुँवरसिंह के उत्तराधिकारी अमरसिंह के बारे में शिव कविराय ने लिखा है–
”कसि के तुरंग तंग चढ़्रयौ जब जंग पर अंग अंग आनंद उमंग रंग भरिगौ
सनमुख समर विलोकि रनधीर धीर (वीर) फौज फिरंगाने की समेटि सोक तरिगौ
कहे शिव कवि डाँटि डाँट कपतानन कूँ काटि काटि काकड़ी कुम्हैड़ो सौ निकरिगौ
हाथ मोचि हाकिम कहत साह लंदन सों हाय हाय आफत अमरसिंह करिगौ|”
इसी तरह के अनेक लोमहर्षक उदाहरण डॉ. भगवानदास माहौर ने अपने विलक्षण शोध-ग्रंथ ‘1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिंदी साहित्य पर प्रभाव’ में दिए हैं| 1857 के समय दर्जनों राजस्थानी कवियों ने भारतीय राजाओं को अंगे्रजों के विरुद्व खड्रगहस्त होने के लिए प्रेरित किया| प्रसिद्घ कवि मीसण सूरजमल ने लिखा–
सीह न बाजौ ठाकुराँ, दीन गुजारौ दीह|
हाथल पाड़े हाथियाँ, सो भड़ बाजै सीह||
(ओ राजाओं, अब तुम्हें शेर कहलाने का अधिकार न रहा| अब तुम विदेशियों की दया पर दिन गुजार रहे हो| शेर तो वह कहलाता है जो थप्पड़ मारकर हाथी को भी ढेर कर देता है|)
राजस्थान का डिंगल-साहित्य और मालवा के लोक-गीत ऐसी ही तेज-तर्रार बातों से भरे पड़े हैं| बैंसवाड़ी, मालवी, ब्रजभाषा और पंजाबी आदि बोलियाँ अपनी मिठास के लिए जानी जाती हैं लेकिन स्वातंत्र््रय-समर के दौरान आप उन्हें तेजाब उगलते हुए पाएँगे| 1857 से संबंधित ऐसी असंख्य रचनाओं को पढ़ने और सुनने का मौका मुझे मिला है| उन्हें आज यहाँ दोहराना असंभव है, लेकिन मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि समस्त भारतीय भाषाओं और बोलियों में उपलब्ध 1857 के संदर्भों को एकत्र्ित करने का व्यापक अभियान चलाया जाए तो मुझे विश्वास है कि इतिहासकारों को नई दिशा मिलेगी| वे शायद इस अकाट्रय निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे कि 1857 का स्वातंत्र््रय-संग्राम केवल बहादुरशाह, तात्या टोपे, लक्ष्मीबाई और अवध के नवाबों जैसे सामंतों के निजी स्वार्थों की लड़ाई नहीं था बल्कि सम्पूर्ण भारत की राष्ट्रीय आकांक्षा का विस्फोट था| हमारे इतिहासकारों और भावी भारत के निर्माताओं को यह पता चलेगा कि 1857 का स्वातंत्र््रय संग्राम हमारे लिए कौन-सी कार्य सूची छोड़ गया है ? शोषणमुक्त समाज, असाम्प्रदायिक राजनीति और जातिभेदरहित भारत की उद्रभावना करनेवाला 1857 आज भी हमारे लिए प्रेरणा का प्रबल स्रोत है| अपनी जातीय स्मृति को सुरक्षित रखने और उसे अपने भविष्य का प्रकाश स्तम्भ बनाने में साहित्य अद्वितीय भूमिका निभा सकता है|
अब तक हुए अनुसंधानों से तो लगता है कि 1857 ने लगभग 50 साल तक हिंदी साहित्य को सहमाए रखा| भूषण, पद्रमाकर रामकवि, कवि शिवराय, सूरजमल जैसी वाणी अगले लगभग पाँच दशकों तक सुनने को ही नहीं मिली| यहाँ भारतेंदु की–
‘कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जनबल नासी|
जिन भय सिर न उठाय सकत कहू भारतवासी||
या ‘बि्रटिश सुशासित भूमि में आनंद उमगे गात’ जैसी रचनाओं और प्रेमधन, प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, श्रीधर पाठक जैसे अन्य साहित्यकारों की रचनाओं की मीमांसा करना मुझे जरूरी नहीं लगता| हिंदी के अनेक प्रसिद्घ समालोचकों ने यह काम पहले ही भली-भाँति कर रखा है| यहाँ केवल दो साहित्यकारों का उल्लेख करना जरूरी है| एक पं. बालकृष्ण भट्ट, जो भारतेंदु से सात साल बड़े थे और दूसरे बालमुकुंद गुप्त, जो भारतेंदु से 15 साल छोटे थे| इन दोनों साहित्यकारों ने अपना तेवर वही रखा, जो 1857 का था| उनकी रचनाओं में वही निर्भय निनाद सुनाई पड़ता है, जो उनके पहले अर्नेस्ट जोन्स और उनके बाद सावरकर की रचनाओं में था| 1882 में बालकृष्ण भट्ट ने लिखा–”हमारा कथन है कि राजभक्ति और प्रजा का हित दोनों का साथ कैसे निभ सकता है ? जैसे हँसना और गाल फुलाना, बहुरी चबाना और शहनाई बजाना एक संग नहीं हो सकता, ऐसा यह भी दुर्घट और असंभव है|” राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद और सर सय्यद अहमद खाँ जैसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए भट्टजी लिखते हैं–”बनारस, अलीगढ़ आदि स्थानों में दो एक ऐसे महापुरुष कुलबोरन उपज खड़े हुए हैं जो स्वार्थ लंपटता के आगे देश के हित पर कुल्हाड़ा चला रहे हैं|” उन्हें चेतावनी देते हुए भट्टजी कहते हैं कि वे ”राजभक्ति और प्रजाहित” में से किसी एक को चुनें| ऐसी ही निर्ममता बालमुकुंद गुप्त ने अपनी कविताओं और लेखों में दिखाई है| गुप्तजी ने अपने ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ में लॉर्ड कर्जन की जैसी धुनाई की है, वैसी धुनाई स्वतंत्र् भारत के साहित्यकार और पत्र्कार भी अपने समसामयिक शासकों की नहीं कर पाते| क्या आपात्काल में किसी ने बालमुकुंद गुप्त-जैसे लेख लिखने की हिम्मत दिखाई?
बालकृष्ण भट्ट और बालमुकंुद गुप्त जैसे साहित्यकारों को किसी सरकारी वज़ीफे या पेन्शन या सम्मान या ओहदे की हाजत नहीं थी| उनके दिलों में 1857 के संग्राम की लपटें धू-धू करके जल रही थीं| भट्टजी ने ‘हिंदी प्रदीप’ (मार्च 1885) में लिखा–”क्या यही लोग मरहठों के दिनों तक और अंग्रेजी राज गदर के पहले के दिनों तक न थे कि कैसी-कैसी लड़ाइयाँ लड़े और कितनी बार दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिये, वही अब हैं कि पास में लाठी तक नहीं| जरा किसी ने दरवाज़ा खटखटाया तो छक्के छूट गए|” बालमुकुंद गुप्त ने लॉर्ड कर्जन पर प्रहार करते हुए (11 अप्रैल 1903) लिखा–”आपने माई लॉर्ड, जब से भारतवर्ष पधारे हैं, बुलबुलों का स्वप्न ही देखा है या सचमुच कुछ करने योग्य काम किया है, खाली अपना खयाल ही पूरा किया है या यहाँ की प्रजा के लिए कुछ कर्तव्य-पालन किया|…आप बारंबार अपने दो अति तुमतराक से भरे कामों का वर्णन करते हैं| एक विक्टोरिया मेमोरियल हॉल और दूसरा दिल्ली दरबार| पर जरा सोचिए तो यह दोनों काम शो हुए या ड्रयूटी ?” गुप्तजी ने 21 अक्तूबर 1905 को लिखा–”भारतवासियों के जी में यह बात जम गई कि अंग्रेजों से भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा है और उनके आगे रोना-गाना वृथा है| दुबले की वह नहीं सुनते|” गुप्तजी ने अपनी कविताओं में सशस्त्र् क्रांति का भी आह्नान किया| भट्टजी और गुप्तजी, दोनों को ही सरकार और पत्र्-मालिकों का कोपभाजन बनना पड़ा| अखबार बंद करने पड़े, नौकरियाँ छोड़नी पड़ी|
बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त को आप अगर केवल पत्र्कार मानें और साहित्यकार न मानें तो और बात है लेकिन हिंदी पत्र्कारिता के बिना हिंदी साहित्य की हैसियत ही क्या रह जाती है ? हिंदी साहित्य ही क्यों, हिंदी पत्र्कारिता के इतिहास के बिना क्या भारत की स्वाधीनता का इतिहास लिखा जा सकता है ? स्वाधीनता-पूर्व के वर्षों में हम ऐसे कितने साहित्यकार देखते हैं, जो पत्र्कार न रहे हों ? यह भेद आजकल के साहित्यकारों और पत्र्कारों पर कुछ हद तक लागू किया जा सकता है, लेकिन स्वाधीनता-संग्राम के दिनों में लोग पत्र्कार, साहित्यकार और स्वाधीनता सेनानी–इन तीनों की भूमिका एक साथ निभाते थे| इस दृष्टि से हिंदी पत्र्कारिता का इतिहास अत्यंत गौरवशाली है| भट्टजी के ‘हिंदी प्रदीप’ और गुप्तजी के ‘भारतमित्र्’ और ‘हिंदी बंगवासी’ के काफी पहले से हिंदी पत्र्कारिता ने स्वाधीनता की रणभेरी बजा दी थी| हिंदी का पहला पत्र् 30 मई 1826 को निकला| कलकत्ता से प्रकाशित इस पत्र् का प्रारंभ पं. जुगलकिशोर शुक्ल ने ‘हिंदुस्तानियों के हित’ के लिए किया था| डेढ़ साल के पहले ही वह बंद हो गया| 1854 में हिंदी का पहला दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण’ अंग्रेज सरकार की नाक के नीचे याने कलकत्ते से ही निकला| इस पत्र् के संपादक श्यामसुंदर सेन ने लगातार जन-असंतोष की खबरें खुलकर छापीं| 1857 की सशस्त्र् मुठभेड़ों की खबर छापने में भी इस अखबार ने कोई कोताही नहीं की| मेरठ की घटनाओं के बाद ठीक 16वें दिन 26 मई 1857 के ‘समाचार सुधावर्षण’ ने लिखा–”साम्राज्य में जब संकट पड़ा तब गवर्नर ने अनेक वायदे किए, लेकिन विद्रोही सेना का उन वायदों पर कोई विश्वास नहीं| वे युद्घ को समाप्त करने के पक्ष में नहीं| सच्ची बात तो यह है कि युद्घ में दम आ रहा है और अनेक क्षेत्रें की जनता सेना में मिल रही है|” कृपया ध्यान दीजिए| यहाँ इस अखबार ने 1857 को बगावत नहीं, युद्व कहा है और वह भी जनता का युद्घ ! जून 1857 के अंकों की खबरों और टिप्पणियों से सरकार इतनी भयभीत हो गई कि उसने संपादक श्यामसुंदर सेन को अदालत में घसीट लिया| सेन बरी हुए और देश में चल रहे लोकयुद्घ की खबरें बराबर छापते रहे| उनकी खबरों से पता चलता है कि स्वातंत्र््रय-संग्राम डेढ़-दो साल तक चलता रहा, न कि लॉर्ड केनिंग के अनुसार ”1 जुलाई 1958 को ‘गदर’ समाप्त घोषित हो गया|” ‘समाचार सुधावर्षण’ की तरह 1859 में इंदौर से शुरू हुआ ‘मालवा समाचार’ भी जन-संघर्ष की खबरें छापता रहा|
1857 के स्वाधीनता संग्राम के समय, उसके पहले और बाद में हिन्दी पत्र्कारिता की जो भूमिका रही, उस पर ‘हिंदी पत्र्कारिता : विविध आयाम’ के प्रथम खंड से मोटी-मोटी जानकारी तो मिलती है लेकिन अब से 31 साल पहले जब मैंने इस ग्रंथ की योजना बनाई तो मेरे सामने लक्ष्य 1857 नहीं था| अब जरूरी है कि 1857 की दृष्टि से ही हिंदी की पुरानी पत्र्-पत्र्िकाओं को पढ़ा जाए और उन पर व्यवस्थित शोध किया जाए| मुझे पूरा विश्वास है कि यह शोध इतिहासकारों के लिए जानकारी का नया खजाना खोल देगी|
आज के इस व्याख्यान में मैं हिंदी के उन उपन्यासों, निबंधों, कहानियों, कविताओं, नाटकों और फिल्मों का भी जिक्र नहीं कर रहा हूँ, जो बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में लिखे गए हैं| उनमें से अनेक तो सीधे 1857 पर ही लिखे गए हैं और कुछ ऐसे भी हैं, जो 1857 के पात्रें, घटनाओं, स्थानों आदि से संबंधित हैं| यदि सुभद्राकुमारी चौहान की ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसीवाली रानी थी’ से लेकर वृंदावनलाल वर्मा और माखनलाल चतुर्वेदी की कृतियों के साथ-साथ अन्य सभी कृतियों का हम यहाँ विवेचन करने लगेंगे तो आप सब ऊब जाएँगे| उनमें से अनेक कृतियों को पढ़ने और देखने का मौका मुझे मिला है| उनमें से कई तो बहुत ही मर्मस्पर्शी और ज्ञानवर्द्घक हैं, लेकिन अब भी ऐसी कृतियों की जरूरत है, जो 1857 के स्वाधीनता संग्राम पर महाकाव्यात्मक विस्तार और गइराई से लिखी गई हों| 1857 को साहित्य में वही स्थान मिलना चाहिए, जो रामायण और महाभारत के प्रसंगों को मिला है| 1857 का कथानक रामायण और महाभारत के कथानकों से किसी तरह कम नहीं है| उसके पात्र्, उनका अन्तर्द्वन्द्व और उनके उतार-चढ़ाव किसी भी महान्र और अमर साहित्यिक कृति का विषय हो सकते हैं| 1857 पर लिखी गई कोई भी महान्र कृति भारतीय इतिहास का विलक्षण स्रोत बन सकती है और भारत के भविष्य को तय करने में अग्रणी भूमिका निभा सकती है|
21 फरवरी 2007
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