अभी काबुल के इंटरकांटिनेंटल होटल पर हुए तालिबानी हमले का खून सूखा भी नहीं था कि दूसरा हमला इतना भयंकर हो गया कि पूरा अफगानिस्तान थर्रा गया। पहले हमले में 22 लोग मारे गए थे और इसमें 100 लोग मारे गए हैं। सैकड़ों लोग घायल हुए हैं। अफगानिस्तान में शायद ही कोई दिन बीतता हो, जबकि आतंकी हमलों में लोग न मारे जाते हों। संयुक्तराष्ट्र संघ के एक आंकड़े के अनुसार लगभग 10 लोग रोज मारे जाते हैं। पिछले साल 10 हजार सैनिक मारे गए और इतने ही तालिबानी आतंकी ! अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने खुद कहा है कि वहां 21 आतंकी गिरोह सक्रिय हैं। लगभग 50 जिलों पर उनका कब्जा है और यदि अमेरिका ने खुलकर मदद नहीं की तो अगले कुछ माह में अफगानिस्तान में अराजकता फैल जाएगी। पिछले 15-16 साल में अमेरिका वहां अपने 2500 जवान खो चुका है और एक ट्रिलियन डॉलर बहा चुका है। डोनाल्ड ट्रंप वहां से अमेरिकी फौज की पूरी वापसी चाहते थे लेकिन अभी भी 4000 जवान वहां उन्हें रखने पड़े हैं। अमेरिका अपने ही फैलाए हुए जाल में फंस गया है। उसे पता नहीं कि बहादुर अफगानों ने जैसे 1842 में ब्रिटेन और अब रुसी फौजों के घुटने तोड़ दिए थे, वे अमेरिका का भी दम फुला देंगे।
अफगानिस्तान के बागियों को बंदूक के जोर पर दबाना असंभव है, यह सबक अमेरिका कब सीखेगा ? अब तो रुसियों, चीनियों और ईरानियों ने भी अफगान बागियों से बात करना शुरु कर दिया है। अफगानिस्तान की फौज का मनोबल गिर चुका है। वहां की सरकार राष्ट्रपति गनी और मुख्य कार्यकारी डॉ. अब्दुल्ला के बीच झूल रही है। सुयोग्य अब्दुल्ला को अभी तक प्रधानमंत्री का नामकरण नहीं दिया गया है। संसद का चुनाव, जो 2015 में होना था, अभी तक अधर में लटका हुआ है। सरकार का इकबाल करीब-करीब खत्म हो चुका है। बल्ख के राज्यपाल अत्ता मोहम्मद नूर ने अपनी बर्खास्तगी को रद्द कर दिया है और अपने प्रांत की सरकार खुद चला रहे हैं। उप-राष्ट्रपति और प्रसिद्ध उजबेक नेता अब्दुल रशीद दोस्तम तुर्की में शरण लिए हुए हैं और अत्ता का समर्थन कर रहे हैं। हैरात के राज्यपाल इस्माइल खान भी स्वायत्त हो गए हैं। तात्पर्य यह कि अफगानिस्तान का अब अल्लाह ही बेली है। उसका सबसे बड़ा पड़ौसी भारत वहां अब तक दो बिलियन डॉलर खर्च कर चुका है और कुछ सैन्य-प्रशिक्षण भी दे रहा है लेकिन वह वहां शांतिदूत की जबर्दस्त कूटनीतिक भूमिका निभाए, यह समय की मांग है।
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