यह खुशी की बात है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के नेता किम योंग उन की भेंट अब 12 जून को सिंगापुर में होगी। ये दोनों नेता उम्र के लिहाज से बाप-बेटे की तरह हैं लेकिन दोनों का स्वभाव ऐसा है, जैसे कि ये जुड़वां भाई हों। दोनों ही पल में माशा और पल में तोला होते रहते हैं। अब उनकी सिंगापुर भेंट का माहौल रिमझिम होगा, ऐसी आशा है।
यह भेंट तीन दिन पहले स्थगित ही हो गई थी, क्योंकि उ. कोरिया के अत्यंत सख्त बयान ने ट्रंप को नाराज कर दिया था। उ. कोरिया के एक जिम्मेदार नेता ने अमेरिका के उप-राष्ट्रपति माइक पेन्स को बेवकूफ और कठपुतली कह दिया था। उसने ऐसा इसलिए कहा था कि पेन्स ने उ. कोरिया से होनेवा ले समझौते को लीबिया से हुए समझौते-जैसा बता दिया था। लीबीया के नेता मुआमर कज्जाफी ने एक समझौते के तहत अपना परमाणु-कार्यक्रम रोक दिया था लेकिन बाद में उनकी हत्या कर दी गई थी।
जाहिर है कि उ. कोरिया इस तरह के उत्तेजक बयान पर चुप कैसे रह सकता था लेकिन 34 वर्षीय नेता किम की परिपक्वता को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने वार्ता को खत्म होने से बचा लिया। उन्होंने दक्षिण कोरिया के नेता मून जाए इन को अपने सीमांत शहर पानमुंजोन में बुलाया और दो घंटे तक बात करके सारे मामले को सुलटा लिया।
ट्रंप के सुरक्षा सलाहकार जान बोल्टन और विदेश मंत्री पोपंई को जरा संयम का परिचय देना चाहिए। उन्हें युवा किम से कुछ सीखना चाहिए। जब से परमाणुबंदी की बात चली है, किम ने उस पर अमल शुरु कर दिया है। अपने परमाणु संयंत्रों को वे खुले-आम नष्ट कर रहे हैं लेकिन ट्रंप ने अभी तक ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया है कि दक्षिण कोरिया पर भी परमाणुबंदी लागू होगी। यह अन्याय है और शुद्ध दादागीरी है।
यह अमेरिका की महान लोकतांत्रिक परंपरा की अवहेलना है। यदि 12 जून की भेंट में भी ट्रंप का यही रवैया रहा तो आगे जाकर बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। भारत ने अपने विदेश राज्यमंत्री वी.के. सिंह को उ. कोरिया भेजकर ठीक किया लेकिन कोरियाई-युद्ध के समय सक्रिय भूमिका निभाने वाले नेहरु के भारत के मुकाबले मोदी के भारत की भूमिका दयनीय है। उसे सार्थक और प्रभावशाली होना चाहिए।
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