पिछले हफ्ते मैंने लिखा था कि नीतीशकुमार के पास कोई और चारा नहीं रह गया है, सिवाय इसके कि वे लालू के साथ गठबंधन को तोड़ दें। यदि वे नहीं तोड़ते तो बिहार की सरकार तो चलती रहती लेकिन नीतीश और लालू, दोनों के पांव टूट जाते। नीतीश-जैसे साफ-सुथरे नेता को जीवन भर मैले कपड़े धोते रहना पड़ते। इस समय नीतीश के इस्तीफे ने उनकी छवि में चार चांद लगा दिए हैं।
वे बिहार ही नहीं, राष्ट्रीय फलक पर भी चमकने लगे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इस समय दो ही लोग दिखाई पड़ रहे हैं- मोदी और नीतीश। यदि नीतीश विधानसभा भंग करवा देते और चुनाव करवा लेते तो क्या पता, बिहार की जनता नीतीश को किसी महानायक की तरह स्वीकार करती और वे किसी गठबंधन के बिना ही फिर से मुख्यमंत्री बन जाते। ऐसे में 2019 में वे मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाते लेकिन बिहार के जातिवादी समाज का क्या भरोसा ? लालू का वोट बैंक भड़क उठ सकता था और हो सकता है कि वह अपने लालू राजा को दुगुने उत्साह से जिताकर ले आता।
इसीलिए यह विकल्प अधिक सुरक्षित रहा कि नीतीश और भाजपा ने फिर से हाथ मिला लिये। अब ‘संघमुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश को ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का साथ देना होगा और जिस मोदी को रात्रि-भोज पर बुलाकर नीतीश ने भोज स्थगित कर दिया था, उसी मोदी के साथ उन्हें अब आए दिन भोजन और भजन करना पड़ेगा।
यह राजनीति है। पता नहीं, यह क्या-क्या करतब दिखाती है। भर्तृहरि ने हजार साल पहले क्या खूब कहा था कि ‘राजनीति तो वेश्या की तरह अनेकरुपा है।’ इसका खामियाजा अब सबसे ज्यादा कांग्रेस को भुगतना पड़ेगा। वह अब बोफोर्स की तोप पर लालू का गोला चढ़ाएगी क्या ? नीतीश के साथी शरद यादव और के.सी. त्यागी अब क्या करेंगे ? लाल टोपी में क्या वे भी भगवा मोरपंख टांकेंगे ? नीतीश की तरह लचीला होना हर नेता के लिए आसान नहीं होता। लेकिन जयप्रकाश नारायण का एक चेला यदि कांग्रेस के साथ नत्थी हो रहा है तो दूसरे चेले को भाजपा के साथ हाथ मिलाने में एतराज क्यों हो ?
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