देश को आजाद हुए सत्तर साल हो गए लेकिन कई मामलों में हम अब भी जाने-जनजाने अंग्रेजों की गुलामी करते आ रहे हैं लेकिन भाजपा सरकार कुछ क्षेत्रों में सराहनीय पहल कर रही है। उसकी देखादेखी यदि हमारे पड़ौसी राष्ट्र और हमारी प्रांतीय सरकारें अपना ढर्रा बदलें तो दक्षिण एशिया का उद्धार हो जाए। भाजपा की केंद्र सरकार ने पिछले तीन साल में 1800 ऐसे कानूनों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया है, जो अंग्रेज के बनाए हुए थे लेकिन जिनकी प्रासंगिकता अब खत्म हो चुकी थी। हमारे देश में डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा पुराने ऐसे कानून चल रहे थे, जो अंग्रेजों के खिलाफ बगावत को रोकने के लिए बनाए गए थे। औरत-मर्द संबंधों के लिए ऐसे कानून थे, जो विक्टोरिया के जमाने में ब्रिटेन में लागू होते थे।
ऐसे कानून हटाने के लिए हमारे विधि आयोग ने कई लंबी-चौड़ी रपटें पेश की थीं। पिछली सरकारों ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन वर्तमान सरकार ने अभी-अभी संसद में प्रस्ताव पारित करके 235 पुराने कानूनों और अंग्रेज के जमाने के 9 अध्यादेशों को भी रद्द किया है। सबको पता था कि अंग्रेज के बनाए ये सैकड़ों कानून अब निरर्थक हो गए हैं लेकिन कई बार अदालती फैसले उन्हीं के आधार पर होते थे। ऐसे में कानून का पालन तो हो जाता था लेकिन न्याय की जगह अन्याय होता था। सरकार का यह कदम अच्छा है लेकिन यह काफी नहीं है। वास्तव में भारत की जनता को न्याय मिले, शीघ्र मिले और सस्ते में मिले, इसके लिए जरुरी है कि हमारे सारे कानून हिंदी में बनें, भारतीय भाषाओं में उनके अनुवाद हों, अदालत में बहस हिंदी में हो और सारे फैसले हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में हों। अदालतों से अंग्रेजी को पूरी तरह से निकाल बाहर किया जाए। मूल कानून के अंग्रेजी में होने के कारण जनता के लिए वे जादू-टोना बन जाते हैं। वादी और प्रतिवादी की ठगाई का यह सबसे बड़ा कारण है। मेरी बात को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने प्रभावशाली ढंग से दोहराया है। कोविंदजी को चाहिए कि वे सरकार और संसद से इस मामले में जमकर आग्रह करें।
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