दैनिक भास्कर, 24 फरवरी 2018: विजय माल्या के बाद अब नीरव मोदी और विक्रम कोठारी के नाम उछले हैं। कहने के लिए ये लोग उद्योगपति कहाते हैं लेकिन हैं ये, महाठग! इन्होंने अपनी करतूतों से स्वयं को तो कलंकित कर ही लिया है, भारत की बैकिंग व्यवस्था और सरकार की प्रतिष्ठा भी पैंदे में बिठा दी है। ऐसा नहीं है कि सारे कर्जदार उद्योगपति ठगी करते हैं। यह ठीक है कि उनमें से कई अपनी व्यावसायिक असफलता के कारण कर्ज चुका नहीं पाते। यह उनकी मजबूरी होती है लेकिन जो उद्योगपति रंगे हाथ पकड़े गए हैं, वे ऐसे हैं, जो सब नियमों का उल्लंघन करके करोड़ों-अरबों का कर्ज ले लेते हैं और उसे डूबतखाते में डलवा देते हैं। पिछले पांच साल में हमारी 27 सरकारी और 22 गैर-सरकारी बैंकों के 3 लाख 68 हजार करोड़ रु. डूबतखातों में चले गए हैं। यह राशि इतनी बड़ी है कि दुनिया के ज्यादातर देशों का सालाना बजट भी इससे कम ही होता है। इस राशि को बांटा जाए तो भारत के हर गांव को 50 लाख रु. दिए जा सकते हैं।
मोदी और कोठारी, दोनों ने मिलकर कुल 14095 करोड़ रु. का घोटाला किया है। डूबतखातों की कुल राशि के मुकाबले यह लूट-पाट ज्यादा बड़ी नहीं लगती लेकिन अभी तो यह शुरुआत है। इब्तिदाए-इश्क है, रोता है क्या ? आगे-आगे देखिए होता है क्या ? पता नहीं, अभी कितने मोदियों और कोठारियों को रंगे हाथ पकड़ा जाएगा। निजी बैंकों से जितनी लूट-पाट हुई है, उससे पांच गुना ज्यादा सरकारी बैंकों से हुई है। क्यों हुई है ? क्योंकि सरकारी बैंकों में नेताओं की चलती है। बड़े पूंजीपति और बड़े नेताओं की मिलीभगत होती है। सरकारी बैंकों के अफसरों में इतना दम नहीं होता कि वे नेताओं को ना कह सकें। इंदिरा गांधी ने 1969 में जब 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, तब उनका लक्ष्य यह था कि बैंकों में जमा पूंजी का उपयोग राष्ट्रीय विकास के लिए किया जाए और उसके जरिए वोटों की फसल भी काटी जाए। विकास भी हुआ और वोटों की फसलें भी काटी गईं। लेकिन हमारी संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था में डूबतखातों का घुन लग गया। 30 सितंबर 2013 तक डूबतखातों की कुल राशि 28416 करोड़ रु. थी लेकिन 30 सितंबर 2017 तक याने चार साल में यह बढ़कर 1 लाख 11 हजार करोड़ रु. हो गई याने नरेंद्र मोदी सरकार में यह लूट लगभग चौगुनी हो गई। इस सरकार को हम लाए थे, इस नारे पर कि ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’। अभी तक यह पता तो नहीं चला है कि किसी नेता ने कुछ खाया है या नहीं लेकिन यह तो पक्का हो गया है कि उन्होंने जमकर खाने दिया है। पिछले चार साल में यह भाजपा सरकार क्या करती रही ? यदि बैंकों के अफसरों और आडिटरों का इस लूटपाट में सीधा हिस्सा था और मान लें कि ये बैंकें स्वायत्त हैं तो भी रिजर्व बैंक तो सरकारी है या नहीं ? क्या सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उसकी नहीं है ? उसके आडिटर क्या करते रहे ? हो सकता है कि इस लूटपाट में वे शामिल न हों लेकिन क्या किसी चौकीदार को इसलिए माफ किया जा सकता है कि उसने चोरी नहीं की है ? चौकीदार की नियुक्ति किसलिए की जाती है ? चोरी न करने के लिए या चोरों को पकड़ने के लिए ?
इसमें शक नहीं कि नीरव मोदी और विक्रम कोठारी के विरुद्ध सरकार इस समय कठोर कदम उठाती हुई दिख रही है लेकिन आश्चर्य है कि माल्या की तरह नीरव भी विदेशों में मस्ती छान रहा है। ललित मोदी भी ! कैसा है, यह अंतरराष्ट्रीय कानून और कैसी है, यह हमारी विदेश नीति ? इन अपराधियों ने जिन देशों में शरण ले रखी है, उनसे हमारी सरकार दृढ़तापूर्वक पेश क्यों नहीं आती ? इन अपराधियों ने सिर्फ हमारी बैंकों को ही नहीं लूटा है, ये काले धन के सबसे मोटे अजगर हैं। हीरे का व्यापार प्रायः नकद पर ही चलता है। इन हीरा व्यापारियों ने नोटबंदी की धज्जियां उड़ा दी है। यह सरकार सारे भ्रष्टचार के लिए पिछली कांग्रेस सरकार को दोषी ठहराती है। उसका दोष तो है जरुर, लेकिन पिछले चार साल में यह लूट-पाट चौगुनी हो गई है, उसके लिए कौन दोषी है ? इस सरकार में दम होता तो पहले से चले आ रहे भ्रष्टाचार का दम टूट जाता लेकिन मज़ा देखिए कि विदेश में बैठा नीरव मोदी पंजाब नेशनल बैंक को नसीहत दे रहा है। वह कह रहा है कि तुमने हमारे हीरे-जवाहरात जब्त करवाकर हमें बदनाम कर दिया है। अब हम तुम्हारा कर्ज क्यों चुकाएंगे, कैसे चुकाएंगे ? उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। पिछले चार साल में हमारी सरकार को पता ही नहीं चला कि हमारी बैंकिंग व्यवस्था कितनी भ्रष्ट हो गई है ! रिजर्व बैंक की एक रपट में कहा गया है कि हर चार घंटे में एक बैंक कर्मचारी धांधलेबाजी में पकड़ा जाता है। किसी भी व्यक्ति को कर्ज देते समय हर बैंक कम से कम चार जगह जांच करता है लेकिन अरबों-खरबों रु. के कर्जे हमारी बैंकों ने बिना किसी जांच या बिना किसी रेहन के ही लोगों को पकड़ा दिए।
असली सवाल यह है कि बैंकों में जमा यह पैसा किसका है ? क्या यह पैसा पूंजीपतियों का है, उद्योगपतियों का है, व्यवसायियों का है ? नहीं। वे अपने पैसों को बैंकों में पटककर क्यों रखेंगे ? वे पैसे से पैसा कमाते हैं। वे अपने पैसे को सोने नहीं देते। उसे वे दौड़ाते रहते हैं । वह पैसा होता है, मध्यम वर्ग का, नौकरीपेशा लोगों का, छोटे व्यापारियों का, किसानों का, मजदूरों का ! वह पैसा खून-पसीने की कमाई का होता है। उसकी लूटपाठ करके ही पूंजीपति और नेता अपनी तिजोरियां भरते हैं। यही पैसा टैक्स की तौर पर सरकार की जेब में जाता रहता है। अब इन बैंकों को बचाने के लिए सरकार दो लाख करोड़ से भी ज्यादा रुपया देने को तैयार है। सरकार से कोई पूछे कि यह किसका पैसा है और इससे आप किसको बचाने की कोशिश कर रहे हैं ? उस किसान को नहीं, जो लाख-दो लाख रु. के कर्ज को चुकाने की असमर्थता के कारण आत्महत्या कर लेता है बल्कि उस आदमी को, जो सारा पैसा खा जाता है और फिर गुर्राता है।
दोष उसका जरुर है, जो खाता है और गुर्राता है लेकिन उससे भी ज्यादा उनका है, जो रिश्वत या राजनीतिक दबाव के चलते इन अपराधियों को प्रोत्साहित करते हैं या उनकी अनदेखी करते हैं। इस धांधलेबाजी पर रोक इससे नहीं लगनेवाली है कि सारे बैंकों का निजीकरण कर दिया जाए। क्या निजी बैंकों में धोखाधड़ी नहीं होती ? जरुरी यह है कि बैकिंग के नियमों को कठोरतापूर्वक लागू किया जाए। जो भी बैंक अधिकारी उनका उल्लंघन करें, उन्हें कड़ी सजा दी जाए और यदि उन्होंने रिश्वत खाई हो तो उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली जाए। इसी प्रकार धोखाधड़ी करनेवाले लोगों को जन्म कैद या फांसी की सजा दी जाए और उनकी व उनके नजदीकी रिश्तेदारों की भी सारी संपत्ति जब्त कर ली जाए। संसद को चाहिए कि इस संबंध में वह कठोर कानून बनाए। कोई आश्चर्य नहीं कि समुचित और त्वरित कार्रवाई के अभाव में ये वर्तमान अपराधी भी बोफोर्स और 2जी मामलों की तरह छूट जाएं।
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