नवभारत टाइम्स, 29 जनवरी 2020: यूरोपियन संघ की संसद में हमारे नए नागरिकता कानून के विरुद्ध लगभग आधा दर्जन प्रस्ताव आ गए हैं। हमारी अपनी आधा दर्जन विधानसभाएं उसके खिलाफ प्रस्ताव पारित कर रही हैं। देश में दर्जनों शाहीन बाग उग आए हैं। दिल्ली के अलावा लखनऊ, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, तिरुवनंतपुरम जैसे बड़े शहरों में इस कानून के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। केरल में तो 620 किमी की मानव-श्रृंखला बनाकर इस कानून का विरोध किया गया है। देश के कई प्रमुख बुद्धिजीवियों और कलाकारों ने भी खुलकर अपना विरोध प्रकट किया है। इस विरोध-प्रदर्शन में विरोधी दल बढ़-चढ़कर हिस्सा जरुर ले रहे हैं लेकिन ये प्रदर्शन उनके इशारे पर नहीं हो रहे हैं। इस कानून से भारत के मुसलमानों में डर जरुर फैल गया है लेकिन इन प्रदर्शनों के आयोजकों और भागीदारों में हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों और बौद्धो ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया है। केरल के तो गिरजाघरों ने फतवे जारी किए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ये धरने और प्रदर्शन अहिंसक हैं। कहीं से भी तोड़-फोड़ और खून-खराबे की खबरें नहीं आ रही हैं।
जो लोग भी इस नए कानून का विरोध कर रहे हैं, वे इस कानून को गलत नहीं बता रहे हैं। हर व्यक्ति इस बात की सराहना कर रहा है कि पड़ौसी देशों के उत्पीड़ित लोगों के लिए भारतमाता के द्वार खुल रहे हैं लेकिन फिर भी इस कानून में कई कमियां रह गई हैं, जिनका जिक्र मैं आगे करुंगा। जिस बात ने सारे देश के मुसलमानों को भयभीत कर दिया है, वह यह गलतफहमी है कि इस कानून के लागू होने के साथ जो नागरिकता रजिस्टर बनेगा, उसमें से मुसलमानों के नाम बाहर कर दिए जाएंगे। किसकी हिम्मत है, जो यह दुस्साहस करेगा ?
नागरिकता रजिस्टर और पड़ौसी शरणार्थी कानून दो अलग-अलग चीजें हैं। किसी भी व्यक्ति की नागरिकता तय करने के नियम–उप-नियम अभी तक नहीं बने हैं। वे भेदभावूपर्ण हो ही नहीं सकते। पहली बात सरकार इस बारे में सावधान रहेगी और फिर अदालत ऐसे किसी भी भेदभावपूर्ण नियम को खारिज कर देगी। जहां तक पड़ौसी देशों के शरणार्थियों को भारत में शरण देने का सवाल है, यह संशोधित कानून काफी जल्दबाजी में बना है और जल्दबाजी में ही यह पारित हो गया है। इस पर पुनर्विचार करने में कोई बुराई नहीं है। इसे दुबारा संशोधित करने से हमारी संसद या सरकार की नाक नीची नहीं होनेवाली है। वह बहुत ऊंची ही होगी।
इस नए शरणार्थी कानून में बहुत-सी कमियां रह गई हैं। पहली, यह बहुत सराहनीय है कि पड़ौसी देशों के उत्पीड़ितों के लिए भारतमाता के द्वार इतने धमाके से पहली बार खुले हैं लेकिन सिर्फ धार्मिक उत्पीड़ितों के लिए ही क्यों ? राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, जातीय और आर्थिक उत्पीड़ितों के लिए क्यों नहीं ? 1971 में बांग्लादेश से जो एक करोड़ लोग भारत आ गए थे, क्या उनका धार्मिक उत्पीड़न हुआ था ? क्या वे मुसलमान नहीं थे ? तालिबान के कारण में अफगानिस्तान से भागकर आनेवाले पठान, ताजिक, हजारा और उजबेक लोग क्या मुसलमान नहीं थे ? पाकिस्तान के बलूच और सिंधी लोग क्या मुसलमान नहीं हैं ? वे भागकर भारत क्यों आते हैं ? वे यूरोप और अमेरिका क्यों जाते हैं ? क्या अदनान सामी और तसलीमा नसरीन मुसलमान नहीं हैं ? क्या वे हिंदू, सिख, ईसाई या बौद्ध हैं ? यदि उनको भारत शरण दे सकता है तो वह अन्य मुसलमानों के लिए अपने दरवाजे बंद क्यों करता है ?
इस कानून से या तो ‘धार्मिक’ शब्द ही हटा दिया जाना चाहिए या फिर सबके साथ मुसलमानों का नाम भी जोड़ दिया जाना चाहिए। जो भी उत्पीड़ित होगा, भारतमाता उसे शरण देगी। लेकिन थोक में क्यों देगी ? क्या भारत को शरणार्थियों का अनाथालय बना देना है ? शरण-जैसी बेशकीमती चीज़ थोक में देना और थोक में मना करना, दोनों ही गलत है। हर अर्जी पर अलग से विचार किया जाना चाहिए। भारत में हर शरण मांगनेवाले की कड़ी जांच-परख होनी चाहिए, चाहे वह किसी भी मजहब या जाति का हो। वरना अल्पसंख्यक होने के नाम पर इस देश में बहुत-से जासूस, आतंकवादी, ठग, बेरोजगार और निठल्ले लोग भी लदने की कोशिश कर सकेंगे।
इस कानून में सिर्फ तीन पड़ौसी देशों के शरणार्थियों को ही क्यों रखा गया है ? यदि इसे भारत-विभाजन का अधूरा एजेंडा कहा गया है तो मैं पूछता हूं कि अफगानिस्तान का उससे क्या संबंध है ? यदि अफगानिस्तान को जोड़ा गया तो श्रीलंका को क्यों नहीं जोड़ा गया? वहां से लाखों तमिल शरणार्थी भारत आए थे या नहीं ? उन तमिलों में हिंदू, मुसलमान और ईसाई भी थे या नहीं ? नेपाली, बर्मी और तिब्बतियों को हम क्यों भूल गए ? भारतमाता की गोद अराकान से खुरासान याने बर्मा से ईरान तक फैली हुई है।
यह तर्क भी कमजोर है कि सरकार ने 1947 के अधूरे एजेंडे को पूरा किया है। गांधी और नेहरु ने पाकिस्तान के गैर-मुस्लिमों का स्वागत किया था, उसे ही मोदी सरकार अब अंजाम दे रही है। मैं पूछता हूं कि विभाजन के कौनसे दस्तावेज में यह लिखा है कि पाकिस्तान का कोई मुसलमान भारत में आकर और भारत का कोई हिंदू पाकिस्तान में जाकर नहीं बस सकता था ? गांधीजी तो कहा करते थे कि दोनों देशों में दोनों मजहबों के लोग आएं-जाएं और बसे। यदि ये तीनों मुस्लिम देश एक जवाबी कानून बना दें और कहें कि मेादी सरकार जिन भारतीय अल्पसंख्यकों पर अत्याचार कर रही है, उन्हें वे शरण देंगे तो दुनिया में हमारी क्या इज्जत रहेगी ?
इस नए कानून को बनानेवालों ने सोचा होगा कि यह हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए रामबाण सिद्ध होगा। तीन तलाक और कश्मीर के पूर्ण विलय के बाद यह तीसरा ब्रह्मास्त्र होगा, जो भाजपा की नाव को 2024 में पार लगा देगा। लेकिन कुछ उल्टा ही हो रहा है। इस कानून ने भाजपा के सारे विरोधी दलों को एक कर दिया है। गूंगों को जुबान दे दी है। अधमरों में जान डाल दी है। केरल में कांग्रेसी और कम्युनिस्ट एक-दूसरे को फूटी आखों नहीं सुहाते लेकिन अब वे एक मंच पर आकर इस कानून का विरोध कर रहे हैं। भारत के बाहर भारत के मित्र राष्ट्र भी इस कानून के विरुद्ध बोलने से नहीं चूक रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय संगठनों की मानव अधिकार शाखाएं भारत का विरोध करने पर मजबूर हो रही हैं। बांग्लादेश-जैसा भारत का परम मित्र-राष्ट्र भी इस मामले में पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखने लगा है। इमरान खान को मोदी ने यह नया शिगूफा थमा दिया है।
इस कानून से भारत की आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय छवि तो विकृत हो ही रही है, देश में चल रहे इस हंगामे के कारण संसद और सरकार आर्थिक संकट पर भी समुचित ध्यान नहीं दे पा रही है। जरुरी यह है कि इस नए नागरिकता कानून में सरकार समुचित संशोधन शीघ्र करे और अपना ध्यान आर्थिक समस्याओं को हल करने पर लगाए, वरना यही हालत चलती रही तो देश को कहीं दूसरे आपात्काल का सामना न करना पड़ जाए।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
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