नवभारत टाइम्स, 31 जनवरी 2022: भारत और मध्य एशिया के पाँचों राष्ट्रों के संबंध सदियों पुराने हैं। यह ठीक है कि इन पांचों राष्ट्रों में से आज किसी भी देश की सीमा भारत से नहीं लगती है लेकिन इतिहास की गहराइयों में आप उतरें तो आपको पता चलेगा कि इन राष्ट्रों के साथ रूस और चीन के जितने गहरे संबंध रहे हैं, उनसे भी ज्यादा गहरे भारत के संबंध रहे हैं। पिछले दो-ढाई हजार वर्षों में कई बार ऐसा हुआ है कि भारत के लोगों ने इन क्षेत्रों में राज किया है और इन क्षेत्रों के लोगों ने भारत में राज किया है।
अब इन पांचों राष्ट्रों— तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और किरगिजिस्तान- के साथ भारत के संबंधों को नए सिरे से सुदृढ़ बनाने की पहल भारत सरकार ने की है। अफगानिस्तान की घटनाओं के बाद पहले इन राष्ट्रों के सुरक्षा सलाहकारों और बाद में विदेश मंत्रियों की बैठकें नई दिल्ली में हुईं। यदि कोरोना महामारी का प्रकोप नहीं होता तो इन पांचों राष्ट्रों के राष्ट्रपति हमारे गणतंत्र दिवस पर स्वयं भारत आते लेकिन 27 जनवरी को उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ परोक्ष भेंट और वार्ता कर ली। इन मध्य एशियाई नेताओं के साथ भारतीय नेताओं की भेंट ‘शांघाई सहयोग संगठन’ में होती रहती है लेकिन भारत में आयोजित इस शीर्ष सम्मेलन का विशेष महत्व है।
इसका विशेष महत्व इसलिए भी है कि पिछले तीन-चाह माह में जब भी भारत ने इन देशों का सम्मेलन बुलाने की पहल की, पाकिस्तान और चीन का रवैया निषेधात्मक रहा। या तो इन दोनों देशों ने भारत का निमंत्रण किसी न किसी बहाने ठुकरा दिया या लगभग उसी तरह का आयोजन अपने-अपने देशों में भारत के पहले कर लिया। मध्य एशिया के पांचों राष्ट्रपति भारत आएंगे, इस खबर ने चीन की छक्के छुड़ा दिए और उसने भारत से दो दिन पहले भारत की तरह एक परोक्ष-सम्मेलन कर लिया। पाकिस्तान ने भी पहले ऐसा ही किया था। दोनों राष्ट्र यह मानकर चल रहे हैं कि अफगानिस्तान में भारत की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। लेकिन वह यह क्यों भूल रहे हैं कि अफगानिस्तान की आम जनता में भारत के लिए जितना सम्मान है, किसी भी राष्ट्र के लिए नहीं है।
भारत ने पिछले 20 वर्षों में अफगानिस्तान में तीन बिलियन डाॅलर लगाकर इतने निर्माण कार्य किए हैं, जितने किसी भी राष्ट्र ने नहीं किए हैं। इतना ही नहीं, 200 किमी की जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर भारत ने भूवेष्टित अफगानिस्तान को पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त कर दिया है। अब समुद्री मार्ग के लिए पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता का विकल्प खड़ा हो गया है। अब उसे फारस की खाड़ी तक आवागमन और परिवहन की सुविधा प्राप्त हो गई है।
पांचों राष्ट्रपतियों और हमारे प्रधानमंत्री के बीच संवाद हुआ, उसका एक मुख्य मुद्दा यही था कि अफगान-संकट से कैसे निपटा जाए? मोदी भारत के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अफगानिस्तान और इन पांचों देशों की यात्रा की है। अफगानिस्तान में यदि तालिबानी कब्जा नहीं हुआ होता तो ये यात्राएं भी शायद इतिहास के हाशिए में चली जातीं लेकिन अब इन पांचों मध्य एशियाई राष्ट्रों ने अफगान-स्थिति पर चिंता व्यक्त की है। यदि मोदी ने मध्य एशिया को भारत के ‘पड़ौसी-जैसा’ ही कहा तो इन राष्ट्रों के नेताओं ने अफगान-संकट को रेखांकित करते हुए पारस्परिक सुरक्षा और सहयोग को बेहद जरुरी बताया। दोनों पक्षों ने भारत और मध्य एशिया के बीच ‘‘सभ्यता, संस्कृति, व्यापार और जनता से जनता के संबंधों’’ की परंपरा और अभिवृद्धि पर काफी जोर दिया।
सभी नेताओं ने अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति पर काफी चिंता व्यक्त की है और वहां पर सरकार के सर्वसमावेशी होने की मांग की। इसके अलावा संयुक्त वक्तव्य में सभी राष्ट्रों ने एक ऐसा वाक्य कहा, जिस पर पाकिस्तान और चीन का विशेष ध्यान जाना चाहिए। उस वाक्य में कहा गया कि अफगानिस्तान की संप्रभुता और एकता तो महत्वपूर्ण है ही लेकिन यह भी जरुरी है कि उसके आतंरिक मामलों में किसी भी देश को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मध्य एशिया के इन पांचों राष्ट्रों को मुस्लिम राष्ट्र कहा जाता है लेकिन उन्होंने पाकिस्तान की खिंचाई में कोई कोताही नहीं की है। उन्होंने अफगानिस्तान से आशा की है कि वह आतंकवाद, अस्थिरता, अराजकता और अफीम की तस्करी आदि का गढ़ बनने से बाज़ आएगा। मध्य एशिया के ये देश मुस्लिम-बहुत होते हुए भी भारत की तरह धर्म-निरपेक्ष हैं। इन राष्ट्रों में पिछले 50-55 वर्षों में कई बार मुझे जाने और रहने का मौका मिला है। उन्हें अपनी प्राचीन आर्य- संस्कृति पर गर्व करने में जरा भी संकोच नहीं होता है। उनकी भाषा और बोली पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट झलकता रहता है।
मध्य एशिया के राष्ट्रों से भारत के संबंध अत्यंत घनिष्ट हो सकते थे लेकिन यह तभी हो सकता है जबकि उस तक पहुंचने के लिए भारत को पाकिस्तान अपना थल-मार्ग उपयोग करने दे। पाकिस्तान तो भारत को अफगानिस्तान तक भी नहीं जाने देता है। ऐसे में भारत की कोशिश है कि वह ईरान के चाहबहार और बंदरे-अब्बास के जरिए थल-मार्ग से उक्त राष्ट्रों और रूस तक पहुंच सके। ‘अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण यातायात गलियारा’ (आईएनएसटीसी) के जरिए केस्पियन समुद्र पर स्थित तुर्कमेनबाशी बंदरगाह से भी थल मार्ग निकालने पर विचार किया गया है।तुर्कमेनिस्तान से गैस की ‘तापी’ नामक पाइपलाइन यदि भारत तक लाई जा सके तो 1814 किमी इस पाइपलाइन से भारत तक 33 बिलियन क्यूबिक मीटर गैस पहुंच सकती है। यदि पाकिस्तान सहयोग करता तो पूरे दक्षिण एशिया को बहुत सस्ती गैस मिलती और पाकिस्तान को भी जबर्दस्त फायदा होता।
पाकिस्तान का रवैया भविष्य में जैसा भी रहे, इस शीर्ष-संवाद में यह तय हुआ कि दो साल में एक बार ऐसा शीर्ष सम्मेलन अवश्य होना चाहिए। इन राष्ट्रों के विदेश मंत्री, व्यापार मंत्री, संस्कृति मंत्री और सुरक्षा सलाहकार अब नियमित मिलते रहेंगे। भारत में अब एक ‘भारत-मध्य एशिया आयोग’ का सचिवालय भी स्थापित किया जाएगा। इन पांचों देशों के साथ भारत का व्यापार मुश्किल से 2 बिलियन डाॅलर का है, जबकि चीन का लगभग 40 बिलियन डाॅलर का है। चीन के नए रेशम महापथ की विश्व रणनीति में मध्य एशिया की भूमिका अद्वितीय है। उसने इस क्षेत्र में 50 बिलियन डाॅलर से भी ज्यादा का निवेश कर रखा है। मध्य एशिया का यह क्षेत्र 40 लाख वर्ग किमी में फैला है याने यह भारत के 32 लाख वर्ग किमी से लगभग सवाया है और इसकी जनसंख्या सिर्फ सवा 7 करोड़ है। इस क्षेत्र में यूरेनियम, लोहे, तांबे, तेल, गैस आदि की खदानें भरी पड़ी हैं। यदि भारत के साथ इन राष्ट्रों का सहयोग बढ़ने लगे तो भारत समेत सभी पड़ौसी देशों के लाखों-करोड़ों लोगों को नए रोजगार मिल सकते हैं। अगले दस वर्षों में हमारा दक्षिण और मध्य एशिया यूरोप से भी अधिक समृद्ध हो सकता है। प्रसन्नता की बात है कि भारत ने इस दिशा में ठोस कदम उठा लिया है। यह पहल एतिहासिक सिद्ध होगी।
उमाशंकर जोशी says
बहुत अच्छा विश्लेष्ण | भारत की प्रगति के लिए इन देशों से व्यापर आवश्यक है | काश! नेहरु ने पूरा कश्मीर पर कब्ज़ा किए बिना युद्ध विराम घोषित नहीं किया होता | नेहरु की अदूरदर्शिता भारत पर भारी पड़ रही है |
उमाशंकर जोशी says
बहुत अच्छा है |