शी चिन फिंग अब चीन के सर्वेसर्वा बन गए हैं, बिल्कुल माओ त्से तुंग की तरह ! अब वे जब तक चाहेंगे, चीन के राष्ट्रपति बने रहेंगे। उनकी खातिर 1982 के चीनी संविधान में यह संशोधन होगा कि चीनी राष्ट्रपति की अवधि सिर्फ 10 साल तक नहीं रहेगी। शी 2013 में राष्ट्रपति बने थे। उनकी एक अवधि पूरी हो गई। वे दूसरी अवधि याने 2023 तक के लिए फिर चुन लिए गए हैं। लेकिन 64 वर्षीय शी अब चाहें तो 84 वर्षों या उससे भी ज्यादा तक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी, सरकार और फौज के सबसे बड़े मुखिया बने रह सकते हैं। याने शी अब 21 वीं सदी के चीन के माओ त्से तुंग होंगे। उनके किसी उत्तराधिकारी का नाम भी घोषित नहीं किया गया है। उनके पहले जो दो राष्ट्रपति हुए- चियांग जेमिन और हू जिन्ताओ- के उत्तराधिकारियों की पूर्व-घोषणा हुई थी और दोनों ने सिर्फ 10-10 साल राज किया। शी के इतने शक्तिशाली होने का एक बड़ा कारण तो यह है कि वे भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा के तौर पर लोकप्रिय हो गए हैं।
चीन में तंग स्याओ फिंग के जमाने में आई आकस्मिक समृद्धि ने भ्रष्टाचार को इतना बढ़ा दिया कि शी ने कम्युनिस्ट पार्टी के हजारों भ्रष्ट कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया और उनके उत्तराधिकारी बनने की महत्वाकांक्षा पालने वाले कई बड़े भ्रष्ट नेताओं को मौत के घाट भी उतरना पड़ा। स्वयं शी बिल्कुल साफ-सुथरे हैं। शी इसलिए भी भावी चीन के पुरोधा माने गए कि उन्होंने ‘ओबोर’ (चीनी महापथ) की योजना शुरु करके सारे संसार में चीन का डंका बजा दिया। माओ अपनी ध्वंसात्मकता के लिए विख्यात थे और शी अपनी रचनात्मकता के लिए विख्यात हो रहे हैं। शी का इतना अधिक शक्तिशाली होना भारत के लिए चिंता का विषय हो सकता है, क्योंकि उनके राष्ट्रपति-काल में भारत के साथ तीन सीमांत झड़पें हो चुकी हैं। अप्रैल 2013 में देपसांग, सितंबर 2014 में चूमर और 2017 में दोकलाम में। पाकिस्तान के प्रति उनका झुकाव जरा ज्यादा ही है। इसके अलावा उन्होंने नेपाल, मालदीव, बांग्लादेश, श्रीलंका और बर्मा में भी भारत के लिए नई-नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। यदि भारत के नेता अपनी गले-लिपट कूटनीति को चतुराई से चलाएं और अकेले शी को पटाए रखें तो कोई आश्चर्य नहीं कि भारत-चीन सहकार 21 वीं सदी को एशिया की सदी बना सकता है। यदि यह नहीं हुआ तो अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ भारत अपनी पींगे बढ़ा ही रहा है।
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