मार्क्सवाद और लोकतंत्र में 36 का आकड़ा है। दोनों एक दूसरे के घनघोर विरोधी हैं। लेकिन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने इस धारणा को शीर्षासन करवा दिया है। किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव उसके देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी अधिक शक्तिशाली होता है। वह किसी तानाशाह से कम नहीं होता लेकिन इस बार भारत की मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी अपनी ही पार्टी में मात खा गए। उनका प्रस्ताव गिर गया और उनके विरोध में रखा गया प्रस्ताव पारित हो गया। उन्हें अपनी कार्यसमिति (पोलितब्यूरो) में सिर्फ 31 वोट मिले और उनके विरोधी को पचपन वोट मिले। उनके विरोधी थे, पूर्व महासचिव, प्रकाश कारत। येचूरी का प्रस्ताव था कि भाजपा को अगले चुनाव में हराने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन किया जाए जबकि कारत ने भाजपा को हराने की बात तो कही लेकिन कांग्रेस के साथ गठबंधन का विरोध किया। केरल और त्रिपुरा में मार्क्सवादियों का किसी से विरोध है तो कांग्रेस से है।
इन दोनों प्रांतों की पार्टियां करात के साथ हैं जबकि प. बंगाल में कांग्रेस और मार्क्सवादियों में सीधी टक्कर नहीं है। पार्टी का बहुमत सोचता है कि अखिल भारतीय कांग्रेस महागठबंधन के अनिश्चित भविष्य के खातिर हम अपनी प्रांतीय सत्ताओं को खतरे में क्यों डालें ? यहां सिद्धांत पर सत्ता भारी पड़ रही है। यों भी संसद में इस समय केवल नौ मार्क्सवादी सदस्य हैं और मार्क्सवादी पार्टी का कुल वोट घटकर तीन प्रतिशत के आस-पास रह गया है। वह इधर जाए या उधर, कोई खास फर्क पड़नेवाला नहीं है। सिद्धांतों और विचारधारा की राजनीति के दिन अब लद चुके हैं। ऐसे में मार्क्सवादी पार्टी अस्ताचलगामी हो गई है। यदि वह कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का निश्चय कर ही ले तो उसे अखिलेश यादव से सबक सीख लेना चाहिए।
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