नेपाल से खुश खबर यह है कि वहां की कम्युनिस्ट पार्टी एकीकृत मार्क्सवादी- लेनिनवादी पार्टी (एमाले) और प्रचंड की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी में अब एक व्यावहारिक समझौता हो गया है। इन दोनों पार्टियों ने दिसंबर के आम चुनाव में साझा मोर्चा बनाया था। इन्हें 275 की संसद में 174 सीटें मिली थीं। यदि इन्हें 10 सीटें और मिल जातीं तो इन्हें 2/3 बहुमत मिल जाता। एमाले को 121 और माओवादियों को 53 सीटें मिली थीं। दोनों का घोषणा पत्र संयुक्त था लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद दोनों पार्टियों में अनबन हो गई। प्रचंड को आशा थी कि ज्यादा सीटें उनकी पार्टी को मिलेंगी लेकिन उनसे दुगुनी से भी ज्यादा एमाले के के.पी. ओली को मिल गईं। ओली ने जब प्रधानमंत्री की शपथ ली तो माओवादियों ने मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया।
जाहिर है कि यह मतभेद चलता रहता तो एमाले की सरकार लगड़ी हो जाती और वह गिर भी सकती थी लेकिन अब इन दोनों पार्टियों का विलय हो गया है। अब नई पार्टी का नाम नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी होगा। अब इस नई पार्टी का राज नेपाल के सात में से छह प्रांतों में भी होगा। आशा है कि हर साल सरकार बदलनेवाले नेपाल में अब एक स्थायी सरकार पूरे पांच साल काम कर सकेगी। दोनों पार्टियों में सात-सूत्री समझौता हुआ है। ओली और प्रचंड, दोनों पार्टी के अध्यक्ष होंगे। ओली पहले तीन साल और प्रचंड आखिरी देा साल प्रधानमंत्री रहेंगे। यदि यह समझौता कायम रह सके तो नेपाल का बहुत भला होगा लेकिन माना जा रहा है कि यह चीनी कूटनीति के दबाव में हुआ है। यदि ऐसा हुआ है तो मानना पड़ेगा कि भारत पिछड़ गया है और यह कम्युनिस्ट सरकार भारत के लिए नए-नए सिरदर्द खड़े करेगी। अपने पिछले एक वर्ष के शासन-काल में ओली ने चीनपरस्ती के कई काम किए थे, जिनसे मोदी सरकार परेशान थी लेकिन कुछ दिन पहले हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उनसे काठमांडो जाकर भेंट की थी। भारत को नेपाल सरकार की सक्रिय सहायता करनी होगी लेकिन इस वामपंथी सरकार को भी भारत की दक्षिणपंथी सरकार का ख्याल रखना होगा।
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