कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के जर्मनी और ब्रिटेन में दो भाषण हुए। जर्मनी के किसी स्कूल में वह बोले और लंदन के जिस संस्थान में उनका भाषण हुआ, उसका नाम है, ‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ स्ट्रेटजिक स्टडीज’! ऐसे संस्थान में राहुल-जैसे कम पढ़े-लिखे लोगों का भाषण देना तो दूर की बात है, उन्हें भाषण सुनने की अनुमति भी मुश्किल से ही मिलती है लेकिन उन्हें मौका मिला, क्योंकि वे भारत की महान पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं।
अब यह पार्टी सिकुड़कर बहुत छोटी हो गई है लेकिन मुख्य विरोधी दल तो वह अब भी है। ऐसी पार्टी के अध्यक्ष के नाते अपने उन दोनों भाषणों में उन्होंने वहां जो कुछ बोला, क्या उससे उनकी या कांग्रेस की या भारत की इज्जत बढ़ी है? इसका अर्थ यह नहीं है कि मोदी सरकार या भारत में चल रही किसी भी गलत बात का वहां विरोध नहीं किया जाए। जरुर किया जाए लेकिन तथ्यों को यदि तोड़ा-मरोड़ा गया और अपने तर्कों को बचकाना ढंग से पेश किया गया तो आप तो अपने आप को मसखरा सिद्ध करेंगे ही, अपनी पार्टी और देश की भी भद्द पिटवाएंगे।
माननीय राहुलजी ने वहां यही किया है। उन्होंने कहा कि भारत में आतंकवाद इसलिए फैल रहा है कि मोदी सरकार मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों को जान-बूझकर रोजगार नहीं देती है। बेरोजगार लोग आंतकवादी बन जाते हैं। संघ (आरएसएस) भारत में उसी तरह हर संस्था पर कब्जा जमा रहा है, जैसे मुस्लिम देशों में इखवान (मुस्लिम ब्रदरहुड) जमा रही है। राहुलजी ने इस ब्रदरहुड का असली नाम भी नहीं सुना होगा। रोजगार के मसले पर राहुल ने भारत और चीन की तुलना की और कुछ भी ऊटपटांग आकड़े पेश कर दिए। यह भी कह दिया कि यदि वे प्रधानमंत्री होते तो दोकलाम नहीं होता।
दोकलाम होता या न होता, प्रधानमंत्री होने की बात कहना तो दूर, राहुल को उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। ऐसी सोच अगले चुनाव में सारे विपक्ष की नाव को ही डुबो देगी। यदि मोदी, सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री का काम नहीं करने दे रहे हैं और वे मानव-कल्याण मंत्री की तरह काम कर रही हैं तो यह बात वहां कहने की तुक क्या है? बात ठीक है लेकिन कहने की जगह गलत है। यही बात आप भारतीय संसद में जोर-शोर से क्यों नहीं कहते ? बेचारे कांग्रेसियों की मजबूरी है कि राहुलजी उनके नेता हैं लेकिन आश्चर्य है कि वे उन्हें ठीक से पट्टी क्यों नहीं पढ़ाते ?
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