नवभारत टाइम्स, 28 फरवरी 2020: दिल्ली में दो संप्रदायों के बीच इस तरह का दंगा हो सकता है, इसकी कल्पना ही हमारे लोकतंत्र को कलंकित करने के लिए काफी है। 1947 में विभाजन के बाद 1984 में जरुर सिखों के विरुद्ध भयंकर रक्तपात की ज्वाला भड़की थी लेकिन वह एकतरफा थी और इसके पीछे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या थी। लेकिन पिछले चार-पांच दिनों में जो दंगे भड़के हैं, इनके पीछे कारण क्या है ? दिल्ली का यह उत्तर-पूर्वी क्षेत्र अपनी शांतिप्रियता और मेल-जोल के लिए जाना जाता है। पिछले 36 साल में किंही भी दो संप्रदायों के बीच ऐसा नहीं हुआ कि लोग पिस्तौलें, तलवारें और लाठियां लेकर एक-दूसरे पर टूट पड़े हों। अब तक तीन दर्जन से ज्यादा लोग मौत के घाट उतर चुके हैं और लगभग 300 लोग अस्पतालों में घायल पड़े हुए हैं।
जहां तक राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनसीआर) और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का सवाल है, उनका विरोध दिल्ली में ही नहीं, देश के कई शहरों में हो रहा है लेकिन कहीं से भी हिंसा और तोड़फोड़ की खबरें नहीं आ रही हैं। जितने शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से ये धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें से गांधीजी के सत्याग्रह की खुशबू आ रही है। देश के प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह सही हो या गलत, इस तरह के विरोध-प्रदर्शन का पूरा अधिकार है।
लेकिन समझ में नहीं आता कि इन दोनों प्रावधानों के समर्थन में सभाएं और प्रदर्शन करने की जरुरत क्या थी ? संसद ने बहुमत से इस संशोधन को पारित किया है। सरकार अब तक उसी पर डटी हुई है। उसके समर्थन में कुछ नेताओं को अत्यंत उत्तेजक भाषण देने की जरुरत क्या थी ? यदि उसका कोई समर्थन करना चाहे तो जरुर करे लेकिन उसका विरोध करनेवालों को गद्दार कहना, उनको गोली मारने का नारा लगवाना, उनको हत्यारा और बलात्कारी घोषित करवाना आखिर क्या है ?
क्या ये जो दंगे हुए हैं, वे इन्हीं कारनामों का अंजाम तो नहीं हैं ? जो आंदोलन हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल बन रहा था, उसे अब सांप्रदायिक रुप देने की जिम्मेदारी किसकी है ? इस पर वे नेता गंभीरता से विचार करें, जिनके शिष्यों ने अपनी उग्रता में अपना आपा खो दिया था। वे शायद भूल गए कि उनके जहरीले विचार धीरे-धीरे कुत्सित कारनामों का रुप लेते जा रहे हैं।आश्चर्य तो इस बात का है कि गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस को इस अनहोनी होनी का ज़रा-सा भी अंदाजा नहीं हुआ। जमना-पार के इलाके की पुलिस खड़ी-खड़ी देखती रही और हथियारबंद गुंडे निहत्थे नौजवानों की पीट-पीटकर हत्या करते रहे। घरों, दुकानों और वाहनों को फूंका जाता रहा और पुलिस हाथ बांधे खड़ी रही। यह किसी आदिवासी गांव की नहीं, दिल्ली की पुलिस है। सबसे अच्छे प्रशिक्षण, हथियार और सुविधाओं से लैस दिल्ली की पुलिस की यह अकर्मण्यता आश्चर्यजनक है।
यह वही पुलिस है, जिसने जामिया मिलिया के पुस्तकालय में जबर्दस्ती घुसकर छात्र-छात्राओं की पिटाई की थी और जिसने ज.ने.वि. के छात्रों पर हमला करनेवाले गुंडों की अनदेखी की थी। इसका अर्थ क्या है ? क्या यह नहीं कि हमारी पुलिस स्वायत्त नहीं है ? वह अपने कायदों के मुताबिक सीधी कार्रवाई करने लिए स्वतंत्र नहीं है। वह नेताओं के आदेशों की या तो बाट जोहती रहती है या फिर उनके बिना कहे उनके रुझान को समझ लेती है। दिल्ली के इन दंगों में असफल हुई पुलिस स्वयं दंडनीय है। उसे क्षमा नहीं किया जा सकता।
यह ठीक है कि देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दिल्ली-प्रवास के कारण अति व्यस्त रहे होंगे और दंगों पर ध्यान नहीं दे पाए होंगे लेकिन गृह मंत्रालय के दूसरे मंत्री और अफसर क्या कर रहे थे ? दिल्ली के उप-राज्यपाल क्या कर रहे थे ? दिल्ली में कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी उनकी है। इससे भी ज्यादा दुख की बात यह है कि किसी भी पार्टी का कोई भी उल्लेखनीय नेता दंगाग्रस्त क्षेत्र में पांच मिनिट के लिए भी नहीं गया। दोनों पक्षों से शांति की अपील खुद जाकर किसी ने भी नहीं की। ये वही नेता हैं, जो वोटो के लिए गली-गली घर-घर जाकर लोगों के तलुवे चाटते हैं।
यह संतोष की बात है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल दंगाग्रस्त बस्तियों में खुद गए और उन्होंने परेशान लोगों से सीधे संवाद किया। इससे लोगों को कुछ राहत मिली। दोभाल तो अफसर हैं लेकिन हमारे नेताओं को कोई शर्म क्यों नहीं आई ? ऐसा लगता है कि अब दंगे शांत हो गए हैं लेकिन अस्पतालों से हताहतों की जो खबरें आ रही हैं, वे दिल दहला देनेवाली हैं। लोगों ने एक दूसरे के विरुद्ध जिस क्रूरता का परिचय दिया है, वह हमें इंसान नहीं, जानवर बना देती हैं। दिल्ली शहर में अगर यह हो सकता है तो हमारी 73 साल की आजादी, लोकतंत्र और संस्कृति के माथे पर लगा यह काला टीका है।
ऐसा नहीं है कि हादसे पर सभी संवैधानिक संस्थाएं चुप लगा गई है। प्रधानमंत्री ने भी शांति की अपील की है। सबसे ज्यादा उल्लेखनीय राय दिल्ली के उच्च न्यायालय की रही, जिसने दिल्ली की पुलिस और प्रशासन की जमकर खिंचाई कर दी है। जज एस. मुरलीधर की हिम्मत की दाद दी जानी चाहिए, जिन्होंने दो-टूक शब्दों में पुलिस और प्रशासन को डांट लगाई है। उन्होंने सरकारी वकील को फटकारते हुए पूछा है कि क्या दिल्ली में 1984 के नरहत्या कांड को दोहराना चाहते हैं ? पुलिस ने उन मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और नेताओं के खिलाफ अभी तक एफआईआर दर्ज क्यों नहीं की, जिन्होंने भड़काऊ भाषण दिए थे ? वे नेता, जिन्हें जेड सिक्योरिटी मिली हुई है, वे दंगाग्रस्त बस्तियों में क्यों नहीं गए ? जज मुरलीधर ने सरकार का पक्ष रख रहे सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता को भाजपा के उन चार नेताओं के भाषण भी अदालत में सुनवाए, जो भड़काऊ थे। इन जज महोदय का कल ही तबादला भी हो गया। इससे क्या जाहिर होता है ?
इस समय जरुरी यह है कि सभी पार्टियों के नेता, सभी धर्मों के अग्रणी लोग और देश के बौद्धिक लोग इस सांप्रदायिक आग को ठंडी करें। दिल्ली में जो हुआ, सो हुआ। यह देश में कहीं और न हो। एक सत्य दोनों को समझ लेना चाहिए, जो इस नए नागरिकता कानून का विरोध कर रहे हैं और जो समर्थन कर रहे हैं। जो विरोध कर रहे हैं, यदि उन पर हिंसा का बिल्ला चिपक गया तो उनके विरोध को जनता की जो व्यापक सहानुभूति मिल रही है, वह भी खत्म होती चली जाएगी और इस विरोध को टक्कर देने के नाम पर जो उत्साहीलाल अपने नेताओं की खुशामद में लगे हैं, वे काफी बड़ा खतरा मोल ले रहे हैं।
अविजित says
वस्तुत: शाहीन बाग का प्रदर्शन शांतिपूर्ण मानना गलत रहा है। वहां लगाये जाने वाले नारे और भाषण विचार के स्तर पर दुख और क्षोभ पैदा करते आये हैं। यदि सही में अहिंसक और शांतिपूर्ण प्रदर्शन होता तो प्रतिक्रया संभव ही नहीं थी। मूल में शाहीन बाग के नारे और भाषण ही हैं। यह बड़ा सत्य है।