केरल में आई भयंकर बाढ़ से निपटने के लिए दुबई और अबू धाबी (यूएई) की सरकार ने 700 करोड़ रुपए की मदद की घोषणा की है लेकिन भारत सरकार ने इस मदद को लेने से इंकार कर रखा है। ऐसा उसने कई राष्ट्रों के साथ तब भी किया था, जब 2004 में सुनामी तूफान के कारण भारत के हजारों लोग मर गए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहनसिंह ने उस समय विदेशी मदद लेने से मना कर दिया था।
उसके पीछे राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना हो सकती है। आज भी यही भावना काम कर रही हो सकती है। अभी केरल के लिए केंद्र सरकार ने 600 करोड़ रु. की मदद दी है। हमारी सरकार के पास इधर लाखों करोड़ रु. अतिरिक्त इकट्ठे हुए पड़े हैं। वह चाहे तो केरल पर हजार-दो हजार करोड़ भी आराम से खर्च कर सकती है लेकिन अबू धाबी के शेख की इस पहल को अस्वीकार करने का कोई उचित कारण दिखाई नहीं पड़ता। एक तरह से यह उनका अपमान ही करना है।
हमें पता है कि संयुक्त अरब अमारात की अपूर्व समृद्धि में केरल के लाखों नौजवान का असीम योगदान है। वे कृतज्ञता की भावना से प्रेरित होकर अपना योगदान करना चाहते हैं तो हम मना क्यों करें ? क्या हमने नेपाल के भूकंप की समय अपनी तिजोरियां नहीं खोल दी थीं ? यदि हम शेख की पहल को स्वीकार करते हैं तो दोनों देशों के संबंधों की घनिष्टता बढ़ेगी। अभी 2016 में ऐसी राष्ट्रीय विपत्तियों से निपटने की जो सरकारी योजना बनी थी, उसके नौवें अध्याय में साफ-साफ लिखा है कि यदि कोई विदेशी सरकार किसी राष्ट्रीय संकट के वक्त अपनी मर्जी से किसी सहायता की पहल करे तो वह स्वीकार की जा सकती है।
शेख नाह्यान की पहल का केरल की मार्क्सवादी पार्टी की सरकार ने स्वागत किया है लेकिन केंद्र सरकार अभी तक पसोपेश में फंसी हुई है। कहीं इस हिंदुत्ववादी सरकार के योद्धा किसी उल्टे गणित में तो नहीं फंस गए हैं ? उन्हें यह डर तो नहीं लग रहा कि किसी इस्लामी देश का पैसा कहीं उनके हिंदू वोट बैंक को तो नहीं डुबो देगा ? यों भी केरल में भाजपा की नहीं, कम्युनिस्टों की सरकार है। उसकी मदद में कोताही का आरोप भी मोदी सरकार पर लग सकता है। केंद्र सरकार को इस मानवीयता सहायता को अपनी इज्जत का सवाल नहीं बनाना चाहिए।
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