नरेंद्र मोदी की सरकार ने वहीं किया, जो राजीव गांधी की सरकार ने किया था। सत्ता में आने के चार साल बाद जब राजीव गांधी को लगा कि जिस कुर्सी पर वे अचानक आ बैठे थे, वह हिलने लगी है तो वे मानहानि विधेयक ले आए, जैसे कि अब उल्टी लहर बहती देख कर मोदी का दम फूल रहा है। अब उसने अपने चार साल पूरे होते-होते राजीव की तरह पत्रकारों की आजादी पर हाथ मारना शुरु कर दिया। जैसे राजीव ने अपना विधेयक वापस ले लिया, वैसे ही मोदी ने भी कर दिया। सूचना मंत्री स्मृति ईरानी की क्या हैसियत है कि वे ऐसा नियम बनवा दें कि प्रेस सूचना ब्यूरो की मान्यता प्राप्त कोई भी पत्रकार फर्जी खबर फैलाता पकड़ा गया तो उसकी सरकारी मान्यता स्थगित या खत्म की जा सकती है! ऐसा नियम प्रधानमंत्री की सहमति के बिना बनना असंभव लगता है लेकिन मोदी ने इसे उलट कर अपनी नाक बचा ली है, बल्कि श्रेय ले लिया है। वे राजीव से ज्यादा चालक निकले। बेचारी ईरानी क्या करती? सूचना मंत्रालय ने अपनी घोषणा वापस ले ली।
दलितों ने मोदी सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल ही दिया है, दिल्ली के व्यापारी पहले ही रूठे हुए हैं और अब पत्रकारों से भिड़ कर मोदी अपनी दाल पतली क्यों करवाते? आज अखबारों और टीवी चैनलों से भी ज्यादा सोशल मीडिया का चलन हो गया है। अखबारों और चैनलों में मोटा पैसा लगता है और पत्रकारों की नौकरी का सवाल रहता है। फर्जी खबर देकर मालिक का पैसा और पत्रकारों की नौकरी खतरे में कौन डालना चाहेगा लेकिन सोशल मीडिया तो बिल्कुल बेलगाम है। उसके नियंत्रण के लिए सरकार क्या कर रही है? अखबारों और चैनलों को मर्यादा में रखने का काम प्रेस कौंसिल करती ही है। जहां तक सरकारी मान्यता का सवाल है, उसे खत्म करने की धमकी क्या किसी सच्चे और निर्भीक पत्रकार को डरा सकती है? मैं देश के सबसे बड़े अखबार नवभारत टाइम्स और पीटीआई-भाषा का लंबे समय तक संपादक रहा लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी सरकारी मान्यता के लिए कोशिश भी की हो। सरकारी मान्यता छीन लेना तो बहुत छोटी बात है। यदि कोई पत्रकार जान-बूझकर कोई झूठी, फर्जी, अप्रामाणिक और मानहानिकारक खबर देता है तो उसे कठोरतम दंड देने का प्रावधान किया जाना चाहिए। लेकिन इस तरह का कानून वे सरकारें नहीं बना सकतीं, जो दब्बू होती हैं और अपनी अवधि के आखिरी दौर में होती हैं।
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