नवभारत टाइम्स, 20 मार्च 2020: भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने राज्यसभा के सदस्य की शपथ ले ली। मेरी स्मृति में ऐसी शपथ संसद में अब से पहले कभी नहीं हुई। कोई नया सदस्य, वह भी राष्ट्रपति द्वारा नामजद शपथ ले और कई सदस्य शर्म-शर्म के नारे लगाएं, ऐसा तो संसद के इतिहास में पहली बार ही हुआ है। इस एतिहासिक दुर्घटना के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है ? इसकी जिम्मेदारी सरकार और गोगोई, दोनों पर आती है। यह ठीक है कि 12 सदस्यों को राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं लेकिन वे उन्हीं को नियुक्त करते हैं, जिनके नाम प्रधानमंत्री कार्यालय से उनके पास आते हैं। गोगोई को सेवा-निवृत्त हुए चार माह भी पूरे नहीं हुए थे कि उन्हें राज्यसभा में भेजने का निर्णय कर लिया गया। गोगोई भारत के ऐसे पहले मुख्य न्यायाधीश हैं, जो राष्ट्रपति की नामजदगी से राज्यसभा के सदस्य बने हैं और वह भी सेवा-निवृत्त होने के बाद चार माह में ही। ऐसा नहीं है कि उनके पहले सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश या साधारण न्यायाधीश कभी सांसद बने ही नहीं। वे बने हैं लेकिन उन्हें किसी सरकार ने नामजद नहीं करवाया और वे चार-पांच माह में नहीं, सेवा-निवृत्त होने के कई वर्षों बाद बने हैं और चुनाव लड़कर बने हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र 1992 में सेवा निवृत्त हुए और 1998 में कांग्रेस उम्मीदवार की तरह चुनाव लड़कर वे राज्य सभा में आए। तब कांग्रेस विपक्ष में थी।
यह ठीक है कि पहले भी न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्लाह उप-राष्ट्रपति बने, एम.सी. छागला राजदूत और मंत्री बने, बहरुल इस्लाम राज्यसभा के सदस्य बने और 2014 में न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया गया। इन नियुक्तियों को भी संसदीय लोकतंत्र की दृष्टि से आदर्श नहीं माना जा सकता लेकिन गोगोई की नियुक्ति से भारत की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधानपालिका- तीनों की प्रतिष्ठा पर प्रश्न-चिन्ह लग गए हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद न्यायपालिका का सर्वोच्च पद है। सारे राष्ट्र में वह एक मात्र पद है। उसके जैसा कोई दूसरा पद नहीं है। अब गोगोई राज्यसभा के सदस्य बन गए हैं। वे उसके लगभग ढाई सौ सदस्यों की रेवड़ में शामिल हो गए हैं। क्या उन्होंने राज्यसभा का सदस्य बनकर अपने आप को बहुत नीचे नहीं उतार लिया है ? जो नेता और उद्योगपति उनकी अदालत में हाथ जोड़े खड़े रहते थे, अब उन्हें उनकी कतार में लगना पड़ेगा। न्यायपालिका के इस अवमूल्यन पर उनके साथी न्यायाधीशों ने भी अफसोस जताया है।
राज्यसभा की सदस्यता या कोई भी सरकारी पद किसी को भी अपने आप मिलते हुए मैंने कभी नहीं देखा। ऐसी नामजदगी क्या नेताओं के आगे नाक रगड़े बिना, भीख का हाथ फैलाया बिना और गिड़गिड़ाए बिना कभी किसी को मिली है ? कवि कुंभनदास ने मुगल-काल में क्या अदभुत बात कही थी। ‘‘संतन को कहां सीकरी सो काम। आवत-जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरिनाम।।’’ हमारे न्यायाधीशों को संतों से भी अधिक निष्पक्ष और निर्विकार होना चाहिए। सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, वैसा दिखना भी चाहिए। यह हो सकता है कि गोगोई ने जितने सरकार-समर्थक फैसले दिए हैं, जैसे राम मंदिर, सबरीमला, राफेल सौदा, सीबीआई और असम की जन-गणना आदि वे सब उनके गुण-दोष के आधार पर दिए होंगे लेकिन अब वे सब संदेह के घेरे में आ गए हैं। उनके साथी न्यायाधीश, भाजपा-विरोधी नेता और साधारणजन भी अब उनके इरादों पर उंगली उठा रहे हैं। यदि गोगोई को यह नामजदगी सरकार ने अपने अहसान उतारने के लिए स्वयं दी है तो भी उनका इंकार उन्हें बड़ा बना देता। अब सारी न्यायपालिका और कार्यपालिका की छवि भी विकृत हो रही है।
भाजपा नेता स्व. अरुण जेटली ने 2012 में कहा था, ‘‘सेवा-निवृत्ति के पहले दिए गए फैसलों पर इस बात का बहुत प्रभाव होता है कि सेवा-निवृत्ति के बाद उन्हें कौनसा पद मिलेगा।’’। लगभग यही बात खुद गोगोई भी कहते रहे हैं लेकिन जिस फिसलपट्टी से वे अपने साथी जजों को बचने की सलाह दे रहे थे, खुद उसी पर फिसल पड़े। 1958 में विधि आयोग की रपट में साफ-साफ कहा गया था कि सेवा-निवृत्ति के बाद जजों को किसी सरकारी पद पर नहीं रखा जाना चाहिए। उसका लालच ही न्यायपालिका को भ्रष्ट कर देता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बिना कोई भी लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। सेवा-निवृत्ति के डर से न्यायाधीश लालच में न फंसें, इस दृष्टि से अमेरिका में जजों को आजीवन अपने पद पर बने रहने की छूट है। गोगोई-कांड यदि भारतीय न्यायपालिका को इस संबंध में कोई नई दिशा दिखा सके तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ ही होगा।
यह गोगोई-कांड यदि राष्ट्रपति द्वारा नामजद किए जानेवाले राज्यसभा-सदस्यों की योग्यता या अर्हता पर भी नई बहस चला सके तो देश उसका स्वागत करेगा। संविधान की धारा 80 कहती है कि राष्ट्रपति ऐसे 12 भारतीय नागरिकों को राज्यसभा के लिए नामजद कर सकता है, जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज-सेवा के क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव हो। मैं पूछता हूं कि इस श्रेणी में क्या कोई न्यायाधीश आ सकता है ? वैसे गोगोई उन कई लोगों से कहीं बेहतर हैं, जो राज्यसभा में सिर्फ इसलिए नामजद कर दिए गए हैं कि वे सत्तारुढ़ दल में रहते हुए चुनाव हार गए हैं या सत्तारुढ़ नेताओं के जी-हुजूरों में खासमखास हैं या जिन्होंने सत्तारुढ़ नेताओं की जेबें डंटकर भरी हैं। राज्यसभा में ऐसे भी कई सदस्य नामजद हुए हैं, जिन्होंने छह साल की अपनी कार्यावधि में कभी सदन में अपना मुंह तक नहीं खोला। हमारा उच्च सदन निम्न कोटि की सदस्यता से हमेशा भरा-पूरा रहा है। इसकी जिम्मेदारी से कोई भी सत्तारुढ़ दल नहीं बचा है।
बिना किसी राजनीतिक भेद-भाव के राज्यसभा में उच्च कोटि के लोग ही नामजद किए जाएं, इसके लिए राष्ट्रपति को एक उत्कृष्ट कोटि की चयन-समिति का निर्माण करना चाहिए। यह ठीक है कि नामजदगी का प्रस्ताव मंत्रिमंडल की तरफ से आता है लेकिन औपचारिक जिम्मेदारी तो राष्ट्रपति की ही बनती है। राष्ट्रपति का पद दलीय राजनीति से ऊपर माना जाता है। गोगोई की नियुक्ति ने देश की कार्यपालिका पर भी उंगली उठाने का मौका पैदा कर दिया है। सत्तारुढ़ नेताओं की मजबूरी हमें समझ में आती है। जो उन पर अहसान करते हैं, उन्हें फायदा पहुंचाने के लिए वे इस कदर बेताब हो जाते हैं कि फिर उन्हें लोकतंत्र की मर्यादाओं का भी ध्यान नहीं रहता। लोकतंत्र के हाथी पर जो न्यायपालिका का अंकुश है, यदि उसे ही आप बोथरा कर देंगे तो फिर देश में बचेगा क्या ?
dev says
Gogoi Kaand.
bilkul sahi shabad WORD likha aapne
dev says
गोगोई-कांड