राफेल-सौदे ने हमारी सरकार के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय की इज्जत भी पैंदे में बिठा दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला आंख मींचकर कर दिया है। उसने सरकार के सरासर झूठ को भी सत्य कह कर परोस दिया है। सरकार ने बंद लिफाफे में ऱाफेल-सौदे के बारे में जो गुप्त रपट अदालत को दी थी, उसमें उसने यह झूठ लिख दिया था कि उसने ऱाफेल-सौदा देश के महालेखा नियंत्रक (सीएजी) को दिखा लिया था और सीएजी की रपट की संसद की लोक लेखा समिति ने परीक्षा कर ली थी।
इस झूठ का खंडन इस समिति के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने तत्काल कर दिया। हो सकता है कि अब इस संसदीय समिति के सामने एटार्नी जनरल और सीएजी, दोनों को पेश होना पड़े। सरकार ने अपनी गलती खुद मान ली है। सरकार ने अपने गोपनीय दस्तावेज़ में जो झूठ लिखा था, उस पर लीपा-पोती करने की भी कोशिश की है। उसने अंग्रेजी के कुछ शब्दों के गलत प्रयोग को इस गलती का कारण बताया है।
सरकार की यह सफाई किसी के भी गले नहीं उतर सकती। किसी डिप्टी सेक्रेटरी या जाइंट सेक्रेटरी से ऐसी भूल नहीं हो सकती। इस तरह की चालबाजी या धोखाधड़ी करने का दुस्साहस सिर्फ हमारे नेता ही कर सकते हैं। नेताओं से भी बड़ी जिम्मेदारी हमारे सर्वोच्च न्यायालय की है। हम सब उसकी प्रमाणिकता का सिक्का मानते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि अरुण शौरी और यशवंत सिंहा की याचिकाओं को रद्द करते समय उसने अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया। हमारे सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशगण क्या अखबार भी नहीं पढ़ते ? क्या उन्हें खबरों के शीर्षक देखने की भी फुर्सत नहीं होती? यदि ऐसा है तो फिर देश के ज्वलंत प्रश्नों पर वे फैसला क्यों देते हैं ?
ऱाफेल के मामले ने इतना जबर्दस्त तूल पकड़ा हुआ है और उन्हें यह भी पता नहीं कि इसकी सीएजी क्या, किसी ने भी कोई भी विधिवत जांच अभी तक नहीं की है। अरुण शौरी का कहना तो यह भी है कि वायु सेना के जिन दो अफसरों से अदालत ने पूछताछ की थी, उसमें असली सवाल तो पूछे ही नहीं गए। अदालत उस सबसे बड़े सवाल को भी गोल कर गई कि 500 करोड़ के जहाज के 1600 करोड़ रु. क्यों दिए गए ? मान लें कि सारे सामरिक तथ्य सार्वजनिक नहीं किए जा सकते लेकिन वह खुद भी अंधेरे में रहना क्यों पसंद कर रही है ? यह हमारे लोकतंत्र के लिए आगे जाकर बड़ा खतरा बन सकता है।
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