गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होनेवाले हैं। इन दोनों चुनावों पर देश की नजरें टिकी हुई हैं। लेकिन पूछा जा रहा है कि इन प्रदेशों में चुनावों की घोषणा एक साथ क्यों नहीं हुई? कांग्रेस पार्टी इसे बड़ा मुद्दा बना रही है। उसका कहना है कि इसके पीछे मोदी सरकार की बदनीयती है। उसके अनुसार गुजरात की चुनाव-घोषणा में जान-बूझकर देरी की जा रही है, क्योंकि 16 अक्तूबर को प्रधानमंत्री वहां जाकर गुजरात की जनता के मुंह में चूसनियां रखनेवाले हैं। यदि गुजरात की चुनाव-तिथि घोषित हो जाती तो मतदाताओं को ललचाने के लिए जो रियायतें घोषित होनेवाली हैं, वे नहीं हो पातीं। चुनाव-तिथि की घोषणा के बाद सरकार मतदाताओं के लिए कोई भी रियायतें या फायदे नहीं दे सकती। इसी डर के मारे अहमदाबाद की नगरपालिका ने कल सिर्फ 10 मिनिट में 530 करोड़ के तोहफे जनता को दे दिए। उसे जैसे ही पता चला कि चुनाव आयोग 4 बजे चुनाव तिथि की घोषणा करनेवाला है, उसने अपनी 4.30 बजे होनेवाली बैठक डेढ़ घंटे पहले ही बुला ली और अपने सारे चुनावी तोहफे 3 बजे ही शहर की जनता को परोस दिए। लेकिन घोषणा तो नहीं हुई।
हिमाचल के लिए घोषणा हो जाना और गुजरात के लिए नहीं होना, इसका कारण सरकारी दबाव को माना जा रहा है। इसे चुनाव आयोग और सरकार, दोनों की मिलीभगत माना जा रहा है। यह सच हो सकता है लेकिन हम यह न भूलें कि हिमाचल विधानसभा की अवधि 7 जनवरी 2018 को पूरी होगी जबकि गुजरात विधानसभा की 15 दिन बाद याने 22 जनवरी 2018 को। इसलिए यदि गुजरात में चुनाव की घोषणा 8-15 दिन बाद हो तो कोई बड़ा अनर्थ नहीं हो जाएगा लेकिन पूर्व चुनाव मुख्य आयुक्त डाॅ. याकूब कुरैशी का यह तर्क भी दमदार है कि यह सरकार और यह आयोग एक तरफ तो समस्त विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ करवाने की मुहिम चला रहे हैं और सिर्फ दो प्रदेशों के चुनाव भी साथ-साथ नहीं करवा पा रहे हैं। आखिर क्यों ? इसका कारण जो भी हो, एक बात तो साफ़ है। इस बार गुजरात के चुनाव ने भाजपा का दम फुला रखा है। जीतेगी तो भाजपा ही लेकिन यदि उसकी सीटें कम हो गईं या वह हार ही गई तो मोदी सरकार के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा।
Pradeep deo says
Before jumping to conclusion one should have waited for clearifiction from election commission.