राष्ट्रीय सहारा, 27 सितंबर 2018: भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की न्यूयार्क में होनेवाली भेंट का रद्द होना काफी दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन उससे भी ज्यादा बुरा यह हुआ कि दोनों देशों की तरफ से एक-दूसरे के नेताओं के लिए बेहद अमर्यादित बयान जारी हुए। इस भेंट को रद्द करने की घोषणा करते हुए भारतीय प्रवक्ता ने कहा कि अब ‘इमरान खान का असली चेहरा उजागर हो गया’ और उनके ‘कुत्सित इरादे’ भी ! इतना सुनते ही इमरान ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया। उन्होंने मोदी का नाम लिए बिना कहा कि ‘‘छोटे दिमाग के लोग बड़ी-बड़ी कुर्सियों में बैठे हैं।’’ वे अहंकारी और निषेधात्मक हैं।
सुषमा स्वराज और शाह महमूद कुरैशी की भेंट को रद्द भारत ने किया। उसे रद्द करने के तीन कारण भारत ने गिनाए। पहला, एक भारतीय जवान नरेंद्र सिंह की पाकिस्तानी सेना द्वारा बर्बरतापूर्ण हत्या। दूसरा, कश्मीर के तीन पुलिसवालों का उनके घर से अपहरण और उनकी हत्या। तीसरां, बुरहान वानी समेत 20 आतंकवादियेां की स्मृति में पाकिस्तान सरकार द्वारा डाक टिकिट जारी करना। ये तीनों कारण ऐसे नहीं हैं, जिनके कारण उक्त भेंट रद्द की जानी चाहिए थी। इसमें शक नहीं कि हमारे जवान के सिर काटे जाने की घटना ने भारत में काफी गुस्सा पैदा कर दिया था। प्रधानमंत्री जनता के इस गुस्से की उपेक्षा कैसे कर सकते थे लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए था कि क्या भारत-पाक संबंधों को हम किसी एक सिरफिरे पाकिस्तानी फौजी या आतंकवादी के हाथों गिरवी रख सकते हैं ? वह बर्बरतापूर्ण कृत्य सर्वथा निंदनीय है लेकिन क्या वह इमरान खान के इशारे पर किया गया था ?
इसके अलावा यह हत्या तो भेंट की घोषणा के दो दिन पहले याने 18 सितंबर को हुई थी। तो फिर 20 सितंबर को भारत सरकार ने भेंट की घोषणा क्यों की ? क्या हमारे विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय में कोई समन्वय नहीं है ? क्या हमारे नेता और अफसर इतनी नाजुक खबरों से भी बेखर रहते हैं ? दो दिन बात की गई भेंट की घोषणा से यह भी सिद्ध होता है कि नरेंद्रसिंह की नृशंस हत्या पर भारत सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया था। उसने विदेश मंत्रियों की भेंट अचानक पहले रद्द की और बाद में इस हत्या को बहाना बना दिया।
इस तरह हमारी सरकार ने एक खोखला कारण और भी खोज निकाला। वह यह कि इमरान खान की सरकार ने आतंकवादियों की स्मृति में डाक टिकिट जारी किए। इमरान ने शपथ ली 25 जुलाई को और ये डाक टिकिट जारी हुए करीब दो हफ्ते पहले। इसमें इमरान का क्या दोष ? यदि हमारी सरकार को कोई बहाना बनाना था तो उसे पहले तारीखें चेक कर लेनी थीं। जिन अफसरों ने ये रद्दी कारण बताकर इतनी महत्वपूर्ण भेंट भंग करवा दी, उनको कुछ नसीहत जरुर दी जानी चाहिए। यहां एक बुनियादी सवाल यह भी उठता है कि इस सरकार को कौन चला रहे हैं ? नेता या अफसर ?
जो तीसरा कारण बताया गया है, भेंट के रद्द होने का, वह भी संदेह के घेरे में है। कश्मीर के आतंकवादी आए दिन ऐसे कारनामे करते रहते हैं, जो वहशीपन से कम नहीं हैं। इसमें शक नहीं कि इन आतंकवादियों को पाकिस्तान की शै भी रहती है। हो सकता है कि यह मामला भी पाकिस्तानी फौज के इशारे पर किया गया हो लेकिन उसके ठोस प्रमाण अभी तक सामने नहीं आए हैं। मान लें कि पाक फौज ने ही यह करवाया है। तो भी इसके बहाने भेंट को भंग करवाना कोई बुद्धिमानी नहीं है। पाक फौज ऐसे जघन्य कृत्य अक्सर करवाती ही रहती है। यह जो कृत्य था, इसमें नया क्या था ? अजूबा क्या था ? यह भी हो सकता है कि कश्मीर या पाकिस्तान के कुछ आतंकवादी संगठनों ने जान-बूझकर इस वक्त यह कुकर्म किया हो ताकि भारत-पाक संवाद के पहले ग्रास में ही मक्खी पड़ जाए। मक्खी तो पड़ गई याने हमारी सरकार आतंकवादियों की चाल का मोहरा बन गई।
यदि हमारी सरकार में दूरदृष्टि और गंभीरता होती तो इन तीनों मुद्दों को वह न्यूयार्क की भेंट में जमकर उठातीं। हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज शब्दों की मलिका हैं। वे कुरैशी की बोलती बंद कर देतीं। कुरैशी उनसे जरुर प्रभावित होते और यह भेंट दोनों राष्ट्रों के सार्थक संवाद में बदल जाती लेकिन हमारे प्रवक्ता ने चतुराईभरी कूटनीति करने की बजाय लट्ठमार राजनीति कर डाली। उसने नाम लिये बिना इमरान खान को फौज का मोहरा बता दिया और उन्हें ‘तालिबान खान’ सिद्ध कर दिया। इमरान और फौज के संबंधों के बारे में किसे पता नहीं है लेकिन ये ही संबंध ऐसा रुप भी धारण कर सकते हैं कि जिसकी कल्पना आज तक किसी ने नहीं की है याने नेता आगे-आगे और फौज उसके पीछे-पीछे ! इसका उल्टा होता ही रहता है लेकिन हमारी सरकार ने इमरान के आने पर जो नया मौका उसके हाथ लगा था, उसे गवां दिया है।
इसका मूल कारण शायद यह है कि हमारी विदेश नीति का संचालन ठीक-ठाक नहीं है। हमारी सरकार कब क्या कर बैठेगी, कुछ पता नहीं। हमारे प्रधानमंत्री का अचानक काबुल से लाहौर चले जाना और नवाज़ शरीफ के यहां शादी में भाग लेना यों तो बड़ा नाटकीय कदम था लेकिन उसके पीछे गंभीर सोच-विचार की कमी वैसी ही थी जैसी कि अचानक भंग की गई इस विदेशमंत्रियों की भेंट में है। भारत-पाक संवाद को पहले भी सिर्फ इसीलिए भंग कर दिया गया था कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त से हुर्रियत के नेता मिल लिये थे। हुर्रियत के नेता पहले भी पाकिस्तानी दूतावास से सतत संपर्क में रहते थे और उनसे प्रधानमंत्री नरसिंहराव और अटलजी की बात भी चलती रहती थी।
इमरान खान ने भेंट के भंग होने पर मोदी के लिए जो बात कही, वह वैसी ही है, जैसी मोदी के बारे में राहुल गांधी की होती है या राहुल के बारे में भाजपाइयों की होती है। घरेलू राजनीति में किसी पर कोई लगाम नहीं रहती लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक-एक शब्द संभलकर बोलना होता है। मियां नवाज ने हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की तुलना गंवारु औरत से कर दी थी लेकिन इमरान ने मोदी के बारे में जो कहा है, क्या वह उन पर भी लागू नहीं होता ? बड़ी-बड़ी कुर्सियों में बैठनेवाले कितने लोग सचमुच बड़े होते हैं ? कुर्सियों से उतरने के बाद ज्यादातर राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों की कीमत उन कुर्सियों के बराबर भी नहीं रहती।
इमरान के बोल ने इतने तीखे घाव कर दिए हैं कि उनकी दुर्गंध अब संयुक्तराष्ट्र महासभा को परेशान करेगी। कुरैशी कश्मीर की बीन बजाएंगे और सुषमा आतंकवाद का ढोल पीटेंगी। पता नहीे हमारे अगले चुनाव तक अब भारत-पाक संवाद पटरी पर आएगा या नहीं। चुनाव की इस वेला में यदि पाकिस्तान—विरोधी माहौल भारत में बना रहे तो यह मोदी के लिए मददगार ही होगा। इमरान के आने पर जो नई किरण फूटी थी, वह अभी बुझ—सी गई है।
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