चीन के साथ चल रहे दोकलाम-विवाद पर प्रो. मा जिया ली का बयान हवा के एक नए झोंके की तरह है। चीन के अखबारों में यह बयान जमकर छाया है। पिछले एक माह में चीनी अखबारों, विशेषज्ञों और सरकारी प्रवक्ताओं ने जितने उत्तेजक बयान दिए हैं, लेख लिखे हैं और खबरें छापी हैं, उन्हें देखते हुए लग रहा था कि भारत-चीन सीमांत पर फिर से वही धुआ उठ रहा है, जो 1960-61 में उठ रहा था। युद्ध के नगाड़े न सही, युद्ध की ढपलियां जरुर बजने लगी हैं।
चीनियों ने भारतीय विदेश मंत्री को भी नहीं बख्शा। उन पर झूठ बोलने तक का आरोप लगा दिया। यह सच है कि दुनिया की किसी भी महाशक्ति ने दो-टूक शब्दों में भारत का समर्थन नहीं किया है। यहां तक कि जापान, रुस, वियतनाम और फिलीपीन्स जैसे राष्ट्र भी, जिनके चीन के साथ जल-थल विवाद चल रहे हैं, दोकलाम मामले पर बिल्कुल तटस्थता धारण किए हुए हैं।
अमेरिका की ट्रंप सरकार, जो अपनी मुंहफट शैली के लिए विख्यात हो चुकी है, उसने भी भारत के पक्ष में एक शब्द भी नहीं कहा है। उसने दोकलाम-विवाद को बातचीत के जरिए हल करने का सुझाव दिया है। महिने भर से चल रहे इस तनाव के बीच आज प्रो. मा जिया ली ने कहा है कि अगले हफ्ते भारतीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल की पेइचिंग-यात्रा के दौरान यह विवाद सुलझ सकता है, सुलझ जाना चाहिए।
कौन है, ये प्रो. मा जिया ली ? प्रो. मा आजकल ‘चीन रिफार्म फोरम’ के वरिष्ठ विद्वान हैं। वे कई बार भारत आ चुके हैं। चीन के बड़े नेताओं के वे सलाहकार हैं। वे मेरे घर पर कई बार आ चुके हैं। उनके साथ मैंने चीन के कई शोध-संस्थानों और विश्वविद्यालयों में व्याख्यान भी दिए हैं। वे भारत-चीन मैत्री के पक्षधर हैं। उनसे मेरा संपर्क बना हुआ है। प्रो. मा का कहना है कि यदि दोभाल की ब्रिक्स-यात्रा के दौरान यह मामला नहीं सुलझा तो इससे भारत और चीन दोनों का बहुत नुकसान होगा। यदि दोनों राष्ट्रों के बीच टक्कर हो गई तो इस रेल को फिर से पटरी पर लाने में लंबा समय लगेगा।
आश्चर्य है कि हमारे विदेश सचिव डा. जयशंकर, जो पहले चीन में हमारे राजदूत रह चुके हैं और जिन्हें चीनी-विशेषज्ञ भी खूब अच्छी तरह जानते हैं, उन्हें दोकलाम-विवाद सुलझाने की जिम्मेदारी क्यों नहीं सौंपी जा रही है? दोभाल की योग्यता में कोई शक नहीं है लेकिन वे ‘ब्रिक्स’ के लिए जा रहे हैं। दोकलाम के लिए जयशंकर का चीन जाना बेहतर होगा। यह संतोष का विषय है कि हमारे ‘सर्वज्ञजी’ ने अभी तक कोई उत्तेजक बयान नहीं दिया है लेकिन एक माह से भारत के सिर पर लटकी इस तलवार को हटाने के लिए हमारे पास कोई गैर-सरकारी चैनल नहीं है, यह तथ्य मोदी सरकार और सत्तारुढ़ दलों की बौद्धिक दरिद्रता का परिचायक है।
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