रुसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ एस-400 प्रक्षेपास्त्र की खरीद का समझौता हुआ। ट्रायंफ नामक इस मिसाइल के पांच स्क्वेड्रन 40 हजार करोड़ रु. में आएंगे लेकिन आश्चर्य है कि 60 हजार करोड़ के रेफल विमानों की तरह इस भारत-रुस सौदे पर कोई हल्ला नहीं हो रहा है। इस दाल में कुछ भी काला नहीं दिखाई पड़ रहा है। इस सौदे में कोई दलाल नहीं है। चीन ने भी ये मिसाइल रुस से खरीद रखे हैं। इस खरीद पर गुस्साए हुए अमेरिका ने चीन पर आर्थिक प्रतिबंध थोप दिए हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि भारत पर अमेरिका ये पाबंदियां शायद नहीं लगाएगा, क्योंकि ये मिसाइल चीनी मिसाइलों के जवाब हैं। आजकल चीन-अमेरिका संबंध जितने तनावपूर्ण हो गए हैं उन्हें देखते हुए अमेरिका इस सौदे की अनदेखी करना पसंद करेगा। शस्त्र-खरीद के इतने खर्चीले सौदे तब भी किए जा रहे हैं जबकि चीन के साथ पींगे भरने में हमारी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इस सौदे का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि भारत अपनी पुरानी गुट-निरपेक्षता की पटरी पर फिर से लौट रहा है। अमेरिका से घनिष्टता का अर्थ रुस से दूरी बनाए रखना नहीं है। इतने बड़े सौदे के बाद यदि आतंकवाद के खिलाफ रुस ने भारत के सुर में सुर मिलाया तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अमेरिका की तरह रुस या चीन को उस आतंकवाद की कोई परवाह नहीं है, जो भारत के खिलाफ है। वे उस आतंकवाद से खफा हैं, जो उनके अपने खिलाफ है।
रुस आजकल पाकिस्तान से घनिष्ट संबंध बना रहा है ताकि वह अफगानिस्तान, सीरिया और इराक में चल रहे आतंकवाद का मुकाबला कर सके। इसीलिए रुस के आतंकवाद-विरोध को हमें जबानी-जमा खर्च समझकर छोड़ देना चाहिए। भारत और रुस के बीच जो अन्य आठ मुद्दों पर समझौते हुए हैं, यदि वे कारगर हुए तो कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदी-रुसी भाई-भाई का पुराना दौर फिर नया हो जाए। यह संतोष का विषय है कि अभी तक अमेरिका ने उक्त मिसाइल-सौदे के खिलाफ कोई बयान जारी नहीं किया है। आशा है, भारत आने वाले ईरानी तेल के बारे में भी अमेरिकी सरकार का रवैया यही रहेगा।
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