यह खुशी की बात है कि केंद्र सरकार अब देश की चिकित्सा-व्यवस्था में बुनियादी सुधार करने की कोशिश कर रही है। किसी भी देश की उत्पत्ति के दो प्रथम आधार होते हैं। एक शिक्षा और दूसरा चिकित्सा ! शिक्षा मन और मस्तिष्क को पटरी पर रखती है और चिकित्सा शरीर को ! शिक्षा के मामले में वर्तमान सरकार भी पिछली सरकारों की तरह भेड़चाल चल रही है लेकिन अब संसद में विधेयक लाकर वह चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति करना चाहती है। पहले भी उसने जरुरी दवाइयों के दाम बांधकर कंपनियों की लूट-पाट पर अंकुश लगाया था लेकिन अब उसने बहुत बदनाम हुई मेडिकल कौंसिल को खत्म करके नए राष्ट्रीय मेडिकल आयोग का प्रावधान किया है। इसका संचालन-मंडल कुछ ऐसा होगा, जिसमें डाक्टरी के धंधे के बाहर के लोग भी होंगे ताकि आम जनता के हितों की भी रक्षा हो सके। इसी प्रकार इसकी कार्यपद्धति भी ऐसी बनाई गई है कि मेडिकल कालेजों को मान्यता देने में अब तक जो बेलगाम भ्रष्टाचार होता था, उस पर नियंत्रण रहे। इसमें चार तरह के बोर्ड बनाए गए हैं, जो मेडिकल कालेजों की मान्यता, पढ़ाई और डाक्टरों की योग्यता पर कड़ी निगरानी रखेंगे। इन कालेजों को हर साल अपनी मान्यता दोहराने से मुक्ति मिलेगी। इन सब कामों के लिए इन कालेजों के मालिकों से कौंसिल के अधिकारी करोड़ रु. की रिश्वत खाते थे। बदले में ये मालिक लोग डाक्टरी के छात्रों से लाखों रु. खा जाते थे। ये कच्चे-पक्के डाक्टर फिर अपनी मरीजों से वह पैसा वसूलते थे। हमारे निजी अस्पताल जिस तरह की डाकेजनी करते हैं, उसके दिल दहलाने वाले आंकड़े रोज़ सामने आ रहे हैं। सरकार को अब चाहिए कि इन अस्पतालों में होने वाले हर इलाज, हर दवा, हर उपकरण और हर सेवा के भी दाम बांधे। इसके अलावा उसमें दम-खम हो तो वह यह भी अनिवार्य करे कि देश के सभी जन-प्रतिनिधियों और सरकारी कर्मचारियों और उनके परिजन का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही हो ताकि उनका स्तर सुधर सके। मेडिकल की पढ़ाई जब तक भारतीय भाषाओं में नहीं होगी, यह चिकित्सा-व्यवस्था भारत के 90 प्रतिशत लोगों के लिए जादू-टोना ही बनी रहेगी। लेकिन हमारे नेताओं में इतनी दूर का सोच कैसे पैदा करें? 200 साल की दीमागी गुलामी दूर होते-होते ही दूर होगी।
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