कोलकाता में हुई ममता बनर्जी की विशाल जनसभा 1977 की याद ताजा कर रही है। उस समय रामलीला मैदान में इंदिरा गांधी के विरुद्ध इतनी ही जबर्दस्त जनसभा हुई थी। विरोधी दलों के नेता दहाड़ रहे थे और इंदिरा का सिंहासन डोल रहा था। सारा रामलीला मैदान खचाखच भरा हुआ था और हमें पास में स्थित हिंदी संस्था संघ की छत पर चढ़ कर नेताओं के भाषण सुनने पड़े थे। ममता की सभा में भी लाखों श्रोता थे और वक्ताओं के आक्रमण भी कम तीखे नहीं थे लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा कि मोदी के खिलाफ इतनी तेज जहरीली हवा क्यों बह रही है? मोदी ने न तो आपातकाल थोपा, न विरोधी नेताओं को हथकड़ियां पहनाईं और न ही अखबारों और टीवी चैनलों का गला घोटा! तो फिर हुआ क्या?
हुआ यह कि 2014 में देश में पहली बार किसी एक विरोधी दल की स्पष्ट बहुमत की सरकार बनी। लोगों की आशाएं-अपेक्षाएं आसमान छूने लगीं। हिंदुत्ववादी सोचने लगे अब सावरकर और गोलवलकर के सपनों का भारत बनेगा। गैर-राजनीतिक जनता ने सोचा कि एक मजबूत नेता आया है, पहली बार। वह भारत का नक्शा ही बदल देगा। मोदी ने भी एक से एक बढ़कर वादे किए। वे वादे जुमले बनकर रह गए। नोटबंदी, जीएसटी, फर्जीकल स्ट्राइक, सीबीआई, रिजर्व बैंक आदि मामलों ने सिद्ध किया कि यह सरकार बेरहम और बेलगाम है। इसके पास न तो गांठ की बुद्धि है और न ही अनुभव! यह नौकरशाहों की नौकर है। हिंदुत्ववादियों को अफसोस है कि यह राष्ट्रवादी सरकार कांग्रेस से भी बदतर निकली। न राम मंदिर बना, न समान आचार संहिता बनी और न ही कश्मीर का मसला सुलझा। मजबूर होकर अब संघ को भी बोलना पड़ रहा है, चाहे दबी जुबान से ही सही।
मोदी सरकार ने पहले अनुसूचितों का अनुचित पक्ष लिया और फिर सवर्णों को बेवकूफ बनाने के लिए 10 प्रतिशत का आरक्षण घोषित कर दिया। न वह इधर की रही और न उधर की ! इससे भी ज्यादा बुरा यह हुआ कि मोदी की व्यक्तिगत छवि इंदिरा गांधी की आपातकालीन छवि से भी बदतर बन गई। आडवाणीजी और जोशीजी के साथ जो औरंगजेबी बर्ताव हो रहा है और भाजपा के मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और कार्यकर्ताओं की जो उपेक्षा हो रही है, उसने भाजपा को भाई-भाई कंपनी में बदल दिया है। इसीलिए विपक्ष के नेताओं के पास कोई वैकल्पिक नक्शा नहीं होने के बावजूद लोग उनकी आवाज पर कान दे रहे हैं।
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