सत्तर साल की आजादी ने देश में नेतृत्व का चरित्र ही बदल दिया है। हमारे नेता लोगों ने अपने आपको नैतिकता से ही आजाद कर लिया है। भ्रष्टाचार के किसी गंभीर मामले में फंसने के बाद यदि अदालत उन्हें बरी कर देती है तो वे जश्न मनाते हैं। उन्हें इस बात के लिए जरा भी शर्म नहीं आती कि वे रंगे हाथ पकड़े गए थे। सारे देश के चैनलों और अखबारों में उनके भ्रष्टाचार की कहानियां जमकर प्रचारित हुई थीं। यदि वे सचमुच ईमानदार थे तो उन्होंने ऐसे अखबारों, चैनलों, विरोधी नेताओं, मुकदमा चलानेवाले लोगों, वकीलों और जजों को माफ क्यों कर दिया? उन्हें दंडित करने की मांग क्यों नहीं की ? मान लें कि वे इतने समर्थ नहीं हैं कि वे उन्हें स्वयं दंडित कर सकें या करवा सकें तो वे कम से कम इतना तो कर सकते थे कि झूठे आरोप लगाने वालों और गलत फैसला देनेवाले जजों के खिलाफ आमरण अनशन कर दें ? लेकिन क्या अपने देश में ऐसा कोई नेता हुआ ?
असली बात तो यह है कि आज देश में ज्यादातर नेता लोग वे ही हैं, जिनकी खाल गेंडे से भी मोटी है। लालू प्रसाद अपनी तुलना नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग से कर रहे हैं। पहले भी वे साल भर जेल में बिता चुके हैं। अब पता नहीं, कितने दिन उन्हें फिर जेल काटना पड़े। पहले की तरह शायद उन्हें जमानत मिल जाए और ऊंची अदालतें उन्हें वैसे ही बरी कर दें जैसे ए.राजा, कनिमोझी और अशोक चव्हाण को कर दिया है। उनके खिलाफ जुटाए गए प्रमाणों को ऊंची अदालत के सामने इतना धुंधला कर दिया जाए कि उनकी जीत पर भी जश्न मनाया जाए।आज देश में नेतागीरी ऐसा धंधा बन गया है कि जिसमें रिश्वत, ठगी, चोरी उसके अविभाज्य अंग हो गए हैं। इसीलिए जो नेता पकड़े नहीं गए हैं, वे भी पकड़े गए या छूटे हुए नेताओं से परहेज़ नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि वे भी उसी बैलगाड़ी पर सवार हैं। जहां तक जनता का सवाल है, उसका रवैया भी एकदम ढीला-ढाला है। वरना पिछले विधानसभा चुनाव में लालू की पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें कैसे मिलीं ? यह हमारे आम जनता की ही कृपा है कि हमारे नेताओं की खाल गेंडे से भी ज्यादा मोटी हो गई है।
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