दिल्ली की मेट्रो रेल का किराया अब लगभग दुगुना हो गया है। यदि किसी को मेट्रो के एक कोने से दूसरे कोने जाना हो तो उसका किराया कम से कम 120 रु. हुआ। और यदि रेपिड मेट्रो भी लेना हो तो उसमें 40 रु. और जोड़ लीजिए। यदि आपको रेपिड मेट्रो और मेट्रो से 30-35 किमी भी जाना हो याने गुड़गांव के सेक्टर 55 से नई दिल्ली तक जाना हो तो लगभग 80 रुपए एकतरफ के खर्च करना होंगे। डेढ़ सौ रु. रोज़ दोनों तरफ के। याने पांच से छह हजार रु. हर महीने खर्च करने होंगे। जिस मजदूर या कर्मचारी की तनखा 10 या 15 हजार रु. है, जरा सोचिए, उस पर यह कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा है।
मैं खुद अब मेट्रो से आना-जाना छोड़कर बसों में यात्रा करना चाहता हूं कि 50 रु. रोज से ज्यादा खर्च न हो। मेट्रो के इस अत्याचार के विरुद्ध अरविंद केजरीवाल की सरकार ने झंडा गाड़ दिया है। यदि मेट्रो निगम नहीं झुकी तो मान लीजिए कि दिल्ली में संसद की सभी सीटें ‘आप’ की जेब में चली जाएंगी। लेकिन मेट्रो निगम की इस चिंता का समाधान क्या है कि करोड़ों रु. का घाटा वह आखिर कैसे पूरा करे ? इसका आसान तरीका तो यही है कि मेट्रो किराया पहले जितना था, उससे भी घटा दिया जाए और रेल के डिब्बों की संख्या बढ़ा दी जाए। इसका परिणाम यह होगा कि बसों, साझा स्कूटरों और पैदली लोग भी मेट्रो से चलने लगेंगे। यात्रियों की संख्या दुगुनी हो जाएगी। घाटा अपने आप घट जाएगा। बढ़े हुए किरायों के कारण मेट्रो सिर्फ मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग की चीज़ बनकर रह जाएगी।
शायद यात्री भी इतने कम हो जाएंगे कि उसका घाटा कम होने की बजाय बढ़ जाएगा। सरकारों को चाहिए कि बसों की संख्या दिल्ली में चौगनी कर दे और मेट्रो के चक्कर घटा दे। यदि कारों की संख्या और प्रदूषण घटाना है तो मेट्रो-किराया आधे से भी कम कर देना चाहिए। मेट्रो किराया बढ़ाने का अर्थ है, प्रदूषण बढ़ाना, क्योंकि लोग अब बसों और साझा आटो रिक्शा का इस्तेमाल ज्यादा करेंगे। मेट्रो-किराया बढ़ाना स्त्री-विरोधी भी है। मेट्रो में प्राप्त उनकी सुरक्षा भी अब खतरे में पड़ेगी। किसान, मजदूर, कर्मचारियों के साथ-साथ छात्र भी इस किराए के पहाड़ को अपने सिर पर झेल नहीं पाएंगे।
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