रुस की पहल पर आजकल तालिबान के साथ मास्को में 12 देशों का एक संवाद चल रहा है। इस संवाद में अफगानिस्तान के आस-पास के देश और उनके साथ-साथ अमेरिका, रुस, चीन और भारत भी भाग ले रहे हैं। भारत ने अपने दो सेवा-निवृत्त राजदूतों को मास्को भेजा है, जो मेरी राय में सराहना के लायक कदम है लेकिन भारत सरकार इतना अच्छा कदम उठाकर भी दब्बूपना क्यों दिखा रही है? विदेश मंत्रालय का प्रवक्ता बार-बार कह रहा है कि इस संवाद में सरकार भाग नहीं ले रही है। गैर-सरकारी प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। भारत सरकार तालिबान से कोई बात नहीं करना चाहती। क्यों नहीं करना चाहती ? 1999 में जब हमारे जहाज का अपहरण हो गया था तब विदेश मंत्री जसवंतसिंह कंधार गए और हमारा जहाज सुरक्षित वापस आ गया।
पिछले 30 वर्षों में जब-जब मैं काबुल, कंधार और हेरात में रहा हूं, तालिबान नेता और पूर्व मंत्री लुक-छिपकर या खुले-आम भी मुझसे मिलते रहे हैं। उनमें से कुछ ऐसे थे, जो 50 साल पहले मेरे साथ काबुल विश्वविद्यालय में पीएच.डी. कर रहे थे। मैंने हमेशा पाया कि उनका विरोध भारत से बिल्कुल नहीं था। वे रुस के विरोधी थे। वे भारत का विरोध इसलिए करते थे कि भारत रुस का मित्र था। वे पाकिस्तान के समर्थक जरुर थे लेकिन यह उनकी मजबूरी थी।
वे पाकिस्तान क्या, दुनिया की किसी महत्तम शक्ति की भी गुलामी बर्दाश्त नहीं कर सकते। वे कट्टर राष्ट्रवादी हैं। वे बबरक कारमल की सरकार को रुस की गुलाम कहते थे और हामिद करजई और अशरफ गनी की सरकार को अमेरिका की गुलाम कहते हैं। जिस रुस के हजारों सैनिकों को मुजाहिदीन और तालिबान ने मौत के घाट उतार दिया, उनसे रुस बात कर रहा है और आप उनसे बात करने से डर रहे हैं। यदि हिंदुस्तान के नेताओं और अफसरों को अफगान मामलों की ठीक समझ होती तो यह बैठक मास्को नहीं, दिल्ली में होती। खैर, देर आयद्, दुरस्त आयद ! अब भारत सरकार को यह भी डर लग रहा है कि कश्मीरी आतंकवादियों से संवाद करने की आवाज भी उठेगी। जब रुस तालिबान आतंकवादियों से बात करवा रहा है और आप उसमें शामिल हो रहे हैं तो फिर अपने ही कश्मीरियों से आप परहेज क्यों कर रहे हैं ? उनके लिए लात तो चल ही रही है, बात भी क्यों नहीं चल सकती ?
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