दैनिक भास्कर, 20 मार्च 2020: मध्यप्रदेश की राजनीति ने कई बुनियादी सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि भोपाल में कमलनाथ सरकार टिकेगी या नहीं ? क्या अन्य प्रदेशों में भी कांग्रेस का वही हाल होनेवाला है, जो मध्यप्रदेश में हो रहा है ? वर्तमान संकट में राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष की भूमिकाओं का निर्वाह क्या सही तरीके से हो रहा है ? क्या दोनों पार्टियों के नेता और विधायकों का आचरण लोकतंत्र की गरिमा तो नहीं गिरा रहा है ? इस तरह के संकटों से बचने के तात्कालिक और दीर्घकालिक तरीके क्या हो सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में भाजपा और कांग्रेस, दोनों पक्ष भिट्टी लड़ा रहे हैं। भाजपा का कहना है कि सदन में मत-परीक्षण तत्काल हो जबकि कांग्रेस का तर्क है कि यह तय करना विधानसभा अध्यक्ष का अधिकार है। उन्होंने 26 मार्च का दिन तय किया है। तब तक इंतजार कीजिए। उधर भाजपा कहती है कि राज्यपाल ने तत्काल मत-परीक्षण का निर्देश दिया है। उस पर अध्यक्ष ने अमल क्यों नहीं किया और विधानसभा को 26 मार्च तक के लिए स्थगित क्यों कर दिया ?
कांग्रेस का यह तर्क कमजोर है कि कोरोना वायरस के कारण 26 मार्च तक सत्र को टाला गया है। यदि यही तर्क है तो संसद के दोनों सत्र कैसे चल रहे हैं ? अदालतें कैसे चल रही हैं ? सरकारी दफ्तर क्यों नहीं बंद किए गए हैं ? जाहिर है कि 10-12 दिन का यह बहाना इसलिए बनाया गया है कि इस अवधि का उपयोग भटके हुए कांग्रेसी विधायकों की वापसी के लिए किया जा सके। कांग्रेसी नेता दिग्विजयसिंह का बेंगलूरु जाकर बागी विधायकों से मिलने की कोशिश इसी दिशा में किया गया साहसिक प्रयत्न है, हालांकि उसका बहाना यह बनाया गया कि वे अपने राज्यसभा के चुनाव के वोट पटाने के लिए वहां गए थे।
कांग्रेस पार्टी की यह बात भी लोगों के गले नहीं उतर रही कि उसने अपने छह मंत्री-विधायकों के इस्तीफे तो स्वीकार करवा लिये लेकिन वह अपने शेष 16 विधायकों के इस्तीफे स्वीकार करवाने में आनाकानी क्यों कर रही है ? क्या अब वह 26 मार्च तक वही पैंतरे अपनाकर अपने विधायकों की घर-वापसी करवाना चाहती है, जिनका आरोप वह भाजपा पर लगा रही है ? दोनों पार्टियों ने अपने-अपने विधायकों को दड़बे में बंद करके रखा हुआ है और दोनों एक-दूसरे पर यह आरोप लगा रही हैं कि उन्होंने विधायकों को पटाने के लिए करोड़ों रु. का इंतजाम किया हुआ है। यह दृश्य भारतीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को आंच पहुंचाए बिना नहीं रहेगा। क्या यह लज्जा का विषय नहीं है कि जिन नेताओं को जनता ने चुनकर भेजा है, वे होटलों में छिपते फिर रहे हैं ? जिन्हें जनता ने अपना शेर बनाकर भेजा है, वे गीदड़ों की भूमिका निभा रहे हैं।
यह तो संतोष का विषय है कि जो 22 विधायक कांग्रेस छोड़ रहे हैं, उन्होंने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया है। वे न तो कांग्रेस में रहते हुए अनुशासनहीनता कर रहे हैं और न ही दल-बदल विरोधी कानून की आड़ ले रहे हैं। वे इस्तीफा दे रहे हैं याने वे शीघ्र ही उप-चुनाव लड़कर फिर से विधानसभा में आएंगे। उन्हें भाजपा टिकिट दे ही देगी, यह जरुरी नहीं है। वे दुबारा कांग्रेस में शामिल होकर भी चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसे में, मैं समझता हूं कि संसद को दल-बदल विरोधी कानून की तरह ऐसा कानून भी बनाना चाहिए कि विधानसभा से इस्तीफा देनेवाले विधायकों को अगले आम चुनाव के पहले चुनाव नहीं लड़ने दिया जाए। ऐसे कठोर प्रावधान से भी दल-बदल एकदम नहीं रुक पाएगा लेकिन उस पर काफी नियंत्रण जरुर हो जाएगा। विधानसभा से बीच में ही इस्तीफा देनेवालों की पेंशन भी बंद की जा सकती है।
जहां तक कमलनाथ सरकार के टिकने का सवाल है, स्वयं कांग्रेस के प्रादेशिक और राष्ट्रीय नेतृत्व को दूर-दूर तक यह अंदेशा नहीं था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया का मामला इतना तूल पकड़ लेगा। कांग्रेस के सारे 26 बागी सदस्य सिंधिया के अनुयायी नहीं हैं। उन्होंने अपने कारणों से भी इस्तीफा दिया है। उनके वे कारण और सिंधिया के इस्तीफे के कारण करीब-करीब एक-जैसे हैं। दोनों की शिकायत यह है कि प्रादेशिक नेतृत्व उनकी परवाह ही नहीं करता और केंद्रीय नेतृत्व तो हमेशा सातवें आसमान पर विराजता है। यदि कमलनाथ और दिग्विजय अपना जौहर दिखाकर इन विधायकों की घर-वापसी करवा लेंगे तो भी ये टिकनेवाले नहीं है।
बेहतर तो यह होता कि इन 22 विधायकों की खुशामद करने की बजाय कमलनाथ एक मजबूत नेता की तरह कहते कि वे ऐसे विधायकों के साथ सरकार चलाना अपना अपमान समझते हैं और अपनी सरकार आगे होकर स्वयं भंग कर देते तो उनकी राष्ट्रीय छवि चमक उठती। वे कांग्रेस के अखिल भारतीय अग्रगण्य नेता बन जाते। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर सवा साल में उन्होंने कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं। अब अध्यक्ष, राज्यपाल और अदालत के चक्कर लगाकर भी उन्हें करना तो वही पड़ेगा, जो गालिब के इस शेर में कहा गया है- ‘बहुत बेआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले’। उनकी सरकार का बचना मुश्किल है, चाहे सदन में मत-परीक्षा आज हो या 26 मार्च को हो।
विधानसभा या लोकसभा के अध्यक्ष की प्रतिष्ठा की रक्षा तभी हो सकती है, जबकि वह निष्पक्ष हों। राज्यपाल के पद पर भी यही बात लागू होती है। वे दिन लद गए, जब राज्यपाल या विधानसभा अध्यक्ष के आगे विधायक परेड किया करते थे। अब तो सबसे प्रामाणिक तरीका यही है कि सदन में मत-परीक्षा हो। यदि राज्यपाल भी यही कह रहे हैं तो इसमें गलत क्या है ? ये अलग बात है कि इस मामले में किसकी चलेगी ? राज्यपाल की या अध्यक्ष की ? यह तो अदालत ही तय करेगी।
मध्यप्रदेश में जो कुछ हो रहा है, वह कर्नाटक का ही अगला अध्याय है। यह अध्याय राजस्थान और महाराष्ट्र में भी दोहराया जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। इसका मूल कारण तो यह है कि कांग्रेस पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व डावांडोल हो चुका है। कांग्रेस के युवा नेताओं को अपने भविष्य की चिंता सता रही है। गुजरात के पांच कांग्रेसी विधायकों के इस्तीफे इसका प्रमाण हैं। देश के लोकतंत्र के लिए यह गहरी चिंता का विषय है कि विपक्ष निरंतर क्षीण होता चला जा रहा है। उससे बड़ी चिंता इस बात की है कि सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों में आतंरिक लोकतंत्र का अभाव बढ़ता चला जा रहा है। सिद्धांत और विचारधारा का तो अब कोई खास महत्व नहीं रह गया है। अब सत्ता ही ब्रह्म है। वह कब किसके हाथ से फिसलकर किसके हाथ में चली जाएगी, कुछ पता नहीं। मध्यप्रदेश का यह रंगीला राजनीतिक दंगल अब देश में कई जगह दोहराया जाएगा।
Sumiran says
क्या मध्य प्रदेश के 25 सीटों पर कांग्रेस दम दिखा पाएगी ?
Sumiran says
25 सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस अपना दम दिखा पाएगी ??