1993 में मुंबई में हुए हत्याकांड का फैसला अब आया है, पूरे 24 साल बाद। इस फैसले का अर्थ क्या है ? यदि कुछ अपराधियों ने पिछले 24 साल जेल में काट लिये या कुछ कम साल भी काट लिये तो पूछना पड़ेगा कि यह फैसला किस काम का है? यदि इसके आने में 10-20 साल और लग जाते तो ज्यादातर अपराधी, वकील और जज भी अपने-अपने नरक या स्वर्ग में सिधार जाते। ऐसे सामूहिक हत्याकांड के फैसले तो कुछ हफ्तों में ही आ जाने चाहिए ताकि जब घाव ताज़ा-ताज़ा हों तो उसी वक्त उन पर मरहम भी लग जाए। जो 257 लोग मारे गए और 700 से ज्यादा घायल हुए, उनके परिवार वालों पर क्या गुजर रही होगी, यह वे ही बता सकते हैं। पहले पहल जो मुकदमा चला, उसमें 123 अभियुक्त थे। अब छह लोगों को सजा मिलेगी। इन्हें कम से कम उम्र-कैद तो मिलेगी ही। आम जनता याने भारत के करोड़ों लोगों को इस उम्र-कैद से क्या लेना-देना होगा ? वह घटना सिर्फ एक अखबारी खबर बनकर रह जाएगी। यदि इन्हें फांसी भी दी जाएगी तो वह भी एक खबर के अलावा क्या होगी। यदि फांसी की वह सजा चांदनी चौक या इंडिया गेट या जुहू-तट पर दी जाए, समारोहपूर्वक दी जाए और समस्त टीवी चैनलों और अखबारों में वह प्रचारित हो तो उसका असर उन लोगों पर जरुर पड़ेगा, जो इस प्रकार की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। जहां तक पुर्तगाल से पकड़े गए अबू सलेम को फांसी नहीं देने का सवाल है, पुर्तगाल सरकार की इस शर्त को अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पुर्तगाल-यात्रा के दौरान हटवा सकते हैं।
भारत-विभाजन के बाद का शायद यह सबसे भयंकर सांप्रदायिक हत्याकांड था। अपराधियों को कमोबेश सजा मिलना काफी नहीं है। देश के नीति-निर्माताओं को यह भी सोचना चाहिए कि वे ऐसी परिस्थितियां पैदा ही न होने दें कि जो इस तरह के नर-संहार का कारण बनें। भारत में हुए कुछ बड़े मंदिर-मस्जिद विवादों का संबंध हिंदू और मुसलमानों से उतना नहीं है, जितना देसी और विदेशी आक्रांताओं से है। वह मूलतः देसी स्वाभिमान पर विदेशी अभिमान का आक्रमण है। उसे हिंदू धर्म और इस्लाम से जोड़कर देखना छोटे दिमाग का काम है और एक प्रकार की तुच्छ राजनीति है।
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