मुजफ्फरनगर के मुसलमानों ने सारे भारत के मुसलमानों के लिए एक शानदार मिसाल पेश की है। मुजफ्फरनगर के पास संधावली गांव है। इस गांव से गुजरने वाली रेलवे लाइन के पास एक अधूरा पुल है। यहां से नेशनल हाई वे-58 भी गुजरता है। दो कि.मी. लंबे इस पुल का वह हिस्सा तो बन चुका है, जो मेरठ से देहरादून जाता है लेकिन देहरादून से मेरठ की तरफ आने वाला हिस्सा अधूरा पड़ा है, क्योंकि वहां एक मस्जिद और मदरसा बना हुआ है।
सरकारों ने उसे नहीं तोड़ा, क्योंकि वे लोगों की भावना को आहत नहीं करना चाहतीं। उन्होंने पुल के उस रास्ते पर एक दीवार खड़ी करके उसे बंद कर दिया था। रात को तेजी से आती गािड़यां इस दीवार से टकराकर चकनाचूर हो जाती थीं। पिछले आठ वर्षों में इस पुल पर 70 लोगों की जान जा चुकी है। इस इलाके के सांसद संजीव बालियान ने केंद्रीय परिवहन मंत्री नितीन गडकरी को भी यह पुल दिखाया था लेकिन वे भी क्या करते ? अखिलेश यादव की सरकार भी इस मामले में चुप खींच गई। देवबंद के इस्लामी पंडितों ने भी मस्जिद हटाने का विरोध शुरु कर दिया लेकिन मुजफ्फरनगर के मुसलमानों ने अद्भुत विवेक और साहस का परिचय दिया।
मुस्लिम समुदाय के प्रमुख लोग इकट्ठा हुए और उन्होंने दोनों भवनों को तुड़वा कर हटवा दिया। स्थानीय प्रशासन ने मस्जिद और मदरसे के खाते में 49 लाख रु. डाल दिए हैं ताकि वे अन्यत्र भव्य भवन खड़े कर सकें। क्या बाबरी मस्जिद के लिए मुकदमेबाजी करने वाले लोग इन अपने भाइयों से कोई सबक सीखेंगे ? मैंने तुर्की, इराक, ईरान और अफगानिस्तान में ऐसे कई स्थान देखे हैं, जहां से इन पूजा-स्थलों को हटाकर दूसरी जगह ले जाया गया है। ये पूजा-स्थल किसने बनाए हैं ? मुनष्य ने। तो फिर मनुष्यों को यह अधिकार क्यों नहीं है कि वे इन्हें कहीं और खड़ा कर दें ? मैं जानता हूं कि राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का झगड़ा पूजा-स्थल का उतना नहीं है, जितना दो समुदायों के अहंकार का है। यदि दोनों पूजा-स्थल फिर वहीं बनेंगे तो अहंकारों का दंगल नित्य प्रति होगा। अदालतें और सरकारें बेबस हो जाएंगी। राम और अल्लाह ऐसी जगह रहना पसंद करेंगे क्या ? मुजफ्फरनगर के इन मुसलमान भाइयों को मेरे प्रणाम, जिन्होंने अयोध्या में छाये अंधेरे को एक दीया दिखाया है।
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