दैनिक भास्कर, 22 जनवरी 2020: श्री जगत प्रकाश नड्डा भाजपा के नए अध्यक्ष बने, यही तथ्य बताता है कि भारत में लोकतंत्र अभी जीवंत है। वरना कांग्रेस की तरह भाजपा भी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह जाती। भाजपा की स्थापना 1980 में हुई थी। श्री अटलबिहारी वाजपेयी उसके पहले अध्यक्ष चुने गए थे। उनके बाद अब तक भाजपा के दस अध्यक्ष चुने गए लेकिन उनमें से कोई किसी अध्यक्ष का बेटा या बेटी, मां या पिता, साला या जीजा नहीं चुना गया। लालकृष्ण आडवाणी, डाॅ. मुरलीमनोहर जोशी और राजनाथसिंह दो-दो बार अध्यक्ष जरुर बने लेकिन उनमें से कोई किसी का रिश्तेदार नहीं था लेकिन हमारी ज्यादातर प्रांतीय पार्टियों का क्या हाल है ? या तो बरसों-बरस उनका अध्यक्ष एक ही आदमी बना रहता है या फिर उसका कोई न कोई रिश्तेदार उसकी गद्दी संभाल लेता है।
इस दृष्टि से भाजपा और हमारी कम्युनिस्ट पार्टियां अपवाद हैं। पिछले पांच वर्षों में भाजपा पर भी यह आरोप लगता रहा है कि यह भाई-भाई पार्टी बन गई थी। नरेंद्र भाई और अमित भाई, दोनों गुजराती भाइयों ने पार्टी पर कब्जा कर लिया है। यदि भाजपा भी कांग्रेस के रास्ते पर चलना चाहती तो उसे भी कौन रोक सकता था। लेकिन भाजपा ने यह बुद्धिमानी प्रदर्शित की कि पार्टी-अध्यक्ष के गृहमंत्री बनते ही उसने एक नए कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति कर दी और अब उस नियुक्ति पर पार्टी की मुहर लगा दी।
कार्यकारी अध्यक्ष, नड्डा के पिछले कुछ माह को हम परीक्षा-काल कहेंगे। इस अवधि में उन्होंने कार्यकारी अध्यक्ष के पद पर रहकर संगठन को अंदर से परखा और संगठन ने भी अपने भावी अध्यक्ष को परख लिया। नड्डा भाजपा के युवा संगठनों के नेता पहले रह ही चुके हैं और पिछली मोदी सरकार और हिमाचल की सरकार में वे मंत्रिपद भी संभाल चुके हैं। उन्हें बहुत ही संयत, उदार और विनम्र नेता के रुप में उनके सहयोगी जानते रहे हैं। उनके नीतिगत बयान स्पष्ट और तर्कपूर्ण होते हैं लेकिन वे आक्रामक और दुराग्रहपूर्ण नहीं होते। इसीलिए भाजपा के विरोधी भी उन्हें पसंद करते हैं। नड्डा के ये गुण भाजपा के साथ गठबंधन में रहनेवाले दलों को सम्हालने में भी काफी काम आएंगे। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि मप्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ और शीर्ष कांग्रेसी नेता दिग्विजयसिंह ने नड्डा के भाजपा अध्यक्ष बनने का स्वागत किया है। नड्डा की पत्नी जबलपुर की हैं, इसलिए मप्र का दामाद कहा गया है। आज के कटुतापूर्ण राजनीतिक माहौल में ऐसा शिष्टाचार भी दुर्लभ ही होता है।
यह ठीक है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उप्र में भाजपा की प्रचंड विजय का सेहरा नड्डा के सिर बंधा था लेकिन यह समय, जबकि वे भाजपा-अध्यक्ष बने हैं, बहुत ही कठिन सिद्ध हो सकता है। 2014 में जब अमित शाह अध्यक्ष बने थे, तब भाजपा के लिए सर्वत्र हरा ही हरा था। केंद्र में नई सरकार थी। राज्यों में भाजपा सरकारें थीं। मोदी का सूर्योदय अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच रहा था लेकिन अब मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड में विपक्षी सरकारे हैं और हरयाणा में भी भाजपा सरकार बाहरी समर्थन पर चल रही है। दिल्ली में भाजपा की जीत के आसार नहीं हैं। उनके कार्यकाल में बिहार, बंगाल और असम सहित देश के 18 राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। इन प्रांतीय चुनावों में भाजपा क्षेत्रीय दलों का मुकाबला कर पाएगी या नहीं, कहना कठिन है। पिछले प्रांतीय चुनावों ने (उप्र को छोड़कर) यह सिद्ध कर दिया है कि विपक्ष के प्रांतीय नेताओं को भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व नाकाम नहीं कर सका है।
इसमें शक नहीं कि अमित शाह की अध्यक्षता में भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर आई लेकिन इसके दो मूल कारण रहे। एक तो कांग्रेस धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर जाती दिखाई पड़ने लगी और दूसरा सत्तारुढ़ दल के साथ कौन नत्थी नहीं होना चाहता है? यह ठीक है कि अपेक्षाकृत युवा अध्यक्ष अमित शाह ने जबर्दस्त संगठन शक्ति का परिचय दिया और सारे देश में घूम-घूमकर आक्रामक शैली में सरकारी नीतियों का प्रचार किया लेकिन यहां मूल प्रश्न यह है कि क्या भाजपा के दस-ग्यारह करोड़ सदस्यों ने शासन-संचालन में कोई सक्रिय योगदान किया ? मोदी सरकार के भी सारे अभियान प्रायः नौकरशाह ही चलाते रहे। भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों बिल-बिला रहा है। सबसे बड़ी पार्टी है तो उसका पता तो चलना चाहिए, जनता को, अपनी रोजमर्रा की तकलीफों के दौरान ? यह चुनौती है, नड्डा के सामने। यदि नड्डा भाजपा के कार्यकर्ताओं को जन-सेवा के सभी अभियानों से जोड़ सके तो वे भारत की राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन कर सकेंगे। वे भाजपा के अप्रतिम अध्यक्ष सिद्ध हो सकते हैं।
इस समय देश में जबर्दस्त असमंजस का माहौल बना हुआ है। हालांकि कश्मीर के पूर्ण विलय, तीन तलाक को तलाक, बालाकोट और विदेश नीति के कुछ नए कदमों पर मोदी सरकार को जनता का व्यापक समर्थन मिला है लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक और नागरिकता रजिस्टर को लेकर देश के नौजवान जिस तरह से भड़के हुए हैं, यदि इस स्थिति को धैर्यपूर्वक नहीं सम्हाला गया तो नड्डा की अध्यक्षता पर मुसीबत के बादल छा जाएंगे। पड़ौसी मुस्लिम देशों के शरणार्थियों में से मुसलमानों के बहिष्कार के सवाल से भारतीय मुसलमानों का अपना कुछ बिगड़ना नहीं है लेकिन इस प्रावधान ने गलतफहमी के बाजार को इतना गर्म कर दिया है, जितना वह आपात्काल (1974-75) के पहले हो गया था। इस प्रावधान ने देश के कट्टर विरोधियों को ही एक नहीं कर दिया है बल्कि भारत के मित्र-राष्ट्रों को भी भारत की आलोचना करने पर मजबूर कर दिया है। इस कानून में या तो सरकार स्वयं संशोधन करे या फिर सर्वोच्च न्यायालय ही इस विभीषिका से देश को बचा सकता है। भाजपा के नए अध्यक्ष को चाहिए कि वह पहल करें ताकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की इस मृग-मरीचिका से देश और मोदी सरकार की रक्षा हो सके।
पार्टी-अध्यक्ष होने के नाते नड्डा का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए सरकार पर दबाव डालें। इस सरकार का जनता से सीधा संवाद नहीं है। उसे जनता की तकलीफों का सही-सही पता नहीं है। पार्टी अध्यक्ष खुद जनता-दरबार लगाएं और प्रधानमंत्री व मंत्रियों को भी इसके लिए प्रेरित करें। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे बड़े नेता ने यह कांटों का ताज अपने सिर पर जरुर पहना है लेकिन यदि उन्हें स्वतंत्र रुप से काम करने दिया गया तो वे देश और पाटी को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं।
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