इन तीन दिनों में मैं इंदौर, उज्जैन, बड़नगर और रतलाम में हूं। इंदौर में कल शाम के प्रीति-भोज में अपने मित्रों, सहपाठियों और शहर के सैकड़ों भद्रलोकीय सज्जनों से भेंट हुई। मेरे साथ 55-60 साल पहले आंदोलनों में साथ रहे मित्रों (राजनीतिज्ञों) से भी बातचीत हुई। लगभग सभी लोग मुझे देश की वर्तमान दशा के बारे में चिंतित-से दिखाई पड़े।
वे वर्तमान नेतृत्व के प्रति मोह-भंग की मुद्रा में थे लेकिन उन्हें देश में कोई वैकल्पिक नेता भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। दर्जनों लोग इस बात पर सहमति जता रहे थे, तब एक पुराने साथी, जिन्होंने लगभग 60 साल पहले मेरे साथ जेल काटी थी, अचानक बोल पड़े कि यह बताइए कि 1977 में इंदिरा गांधी का विकल्प कौन था? यह ठीक है कि 1989 में विश्वनाथप्रताप सिंह राजीव गांधी के विकल्प की तरह उभर गए थे लेकिन 1994-95 में नरसिंहराव का विकल्प कौन था? फिर अटलबिहारी वाजपेयी का विकल्प कौन था? क्या मनमोहनसिंह के नाम की कल्पना भी किसी को थी?
इसीलिए 2019 में आप पहले से किसी विकल्प की तलाश में मत रहिए। यह सुनते ही मैंने कहा कि यह तो ठीक है कि प्रधानमंत्री के तौर पर कई बार ऐसा हुआ है कि पहले से कोई नाम नहीं उभरा था लेकिन 1975-77 में जयप्रकाश नारायण थे और 2010-14 में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे थे। उन्होंने भ्रष्टाचार और अत्याचार के खिलाफ सघन जनमत की फसल खड़ी कर दी थी, जिसे मोदी ने सेंत-मेंत में काट लिया। जाहिर है कि उस समय किसी घोंघा बसंत को भी पार्टियां आगे कर देतीं तो वह भी सोनिया-मनमोहन को हरा देता। इसी वक्त एक नेता ने हस्तक्षेप किया और कहा कि क्या भाजपा में कोई वीपी सिंह नहीं निकल सकता है, जो नोटबंदी, फर्जीकल स्ट्राइक, रेफल-सौदे और जीएसटी को मुद्दा बनाकर बगावत का झंडा गाड़ दे ? तभी संघ के एक पुराने स्वयंसेवक ने कहा कि आपको पता नहीं कि हम लोग कितने कठोर अनुशासन के आदी हैं? जब आडवाणीजी और जोशीजी को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका, तब भी उनकी मुंह खोलने की हिम्मत नहीं हुई तो अब सांप की बांबी में कौन हाथ डालेगा ?
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