हमारे जजों और नेताओं के बीच आजकल दंगल छिड़ा हुआ है। पहले विपक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की याचिका डाल दी थी और अब पक्ष याने सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के चयन-मंडल से पंगा ले लिया है। इस चयन-मंडल द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के लिए चुने गए दो जजों में से एक के नाम पर कट्टस लगाकर उसे वापस कर दिया है। ये जज हैं- उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोजफ ! सरकार की आपत्ति यह है कि जोजफ से भी ज्यादा वरिष्ठ जजों की संख्या 41 है तो अब 42 वें जज को कैसे चुन लिया जाए? कानून मंत्री ने इस आरोप को रद्द कर दिया है कि जज जोजफ के खिलाफ भाजपा ने 2016 से ही गांठ बांध रखी है, क्योंकि उन्होंने केंद्र सरकार के फैसले को उलट दिया था। केंद्र सरकार ने उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया था। जोजफ ने उस सरकार को पुर्नस्थापित कर दिया था।
इस आरोप के जवाब में सरकार ने कहा है कि जस्टिस जे.एस. खेहर ने सरकार के एक जजों की नियुक्ति संबंधी कानून को रद्द कर दिया था। इसके बावजूद उन्हें मुख्य न्यायाधीश बनाया या नहीं ? इसके अलावा भी कानून मंत्री ने जोजफ की नियुक्ति के विरुद्ध कई तर्क दिए हैं। जैसे वे मलायाली हैं लेकिन पहले से कई मलियाली जज सर्वोच्च न्यायालय में हैं। देश के कई प्रांतों और अनुसूचित जातियों के जज भी इस सबसे बड़ी अदालत में नहीं हैं। क्या इन सब तथ्यों पर सर्वोच्च न्यायालय के चयन-मंडल (कालेजियम) ने कोई विचार नहीं किया होगा ? उसकी सिफारिश के बावजूद सरकार ने साढ़े तीन माह तक कोई जवाब क्यों नहीं दिया ? यह संदेह भी है कि इस मामले में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और सरकार की कुछ सांठ-गांठ है ! चार जजों ने खुले आम मुख्य न्यायाधीश पर मनमानी के आरोप भी लगाए थे। कुल मिलाकर इस तरह के विवादों से भारत की न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों की छवि विकृत हो रही है। यह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।
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