पद्मावत फिल्म के बारे में पहले सेंसर बोर्ड और फिर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ जाने के बाद सारा विवाद समाप्त हो जाना चाहिए था लेकिन फिर भी मैं यह मानता हूं कि यदि कोई उसका विरोध करना चाहे तो जरुर करे। यह भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दूसरा पहलू है। सारी दुनिया ईश्वर के अस्तित्व को मानती है लेकिन यदि कुछ नास्तिक लोग उसे नहीं मानते हैं तो न मानें। उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता है। लेकिन किसी भी बात को न मानने वाले के पास कुछ तर्क तो होने चाहिए। करणी सेना पद्मावत का विरोध कर रही है लेकिन क्यों कर रही है, यह उसे पता ही नहीं है। करणी सेना के किसी भी जिम्मेदार नेता ने उस फिल्म को देखा क्या ? फिल्म को देखे बिना उसका विरोध करना कहां तक उचित है ?
मैं तो फिल्म-निर्माता संजय भंसाली से कहूंगा कि 25 जनवरी को यह फिल्म वह सिर्फ करणी सेना और उसके मित्रों को ही दिखाए। फिल्म देखने के बाद वे भंसाली-भक्त बन जाएंगे। फिल्म को देखे बिना ही कहना कि फिल्म दिखाई गई तो सैकड़ों राजपूत महिलाएं जौहर कर लेंगी। राम, राम! ऐसी बात सुनना ही मुझे मृत्युदंड की तरह लगता है। ऐसा सोचना भी अपनी बहनों के साथ बड़ा अन्याय करना है। जहां तक सिनेमा घरों को आग लगाने की बात है, सर्वोच्च न्याायलय ने राज्य सरकारों को जो आदेश दिया है, उसका पालन उन्हें करना ही है। राज्य सरकारों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का जो निर्णय किया था, वह जनभावना का सम्मान करने की दृष्टि से किया था लेकिन उसका अर्थ यह भी निकला था कि ये सरकारें अपने सेंसर बोर्ड पर ही भरोसा नहीं करतीं। कुछ फिल्मी लोगों ने इसे सरकारों का कायराना रवैया भी कहा था लेकिन इन चारों प्रांतीय सरकारों से मैं अनुरोध करुंगा कि प्रदर्शनकारियों के साथ उनका बर्ताव बहुत ही शालीनतापूर्ण होना चाहिए और प्रदर्शनकारियों से मैं निवेदन करुंगा कि वे विरोध करना चाहें तो जरुर करें लेकिन वह पूर्णतः अहिंसक और अनुशासित होना चाहिए। राजपूत परिवारों में जैसी मर्यादा और गरिमा हम हमेशा देखते आए हैं, उसकी रक्षा अवश्य होनी चाहिए।
Leave a Reply