एक सप्ताह बाद हमारे अगले राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवारों के नाम सामने आ जाएंगे। जहां तक लालकृष्णजी आडवाणी और डाॅ. मुरलीमनोहर जोशी के नामों का सवाल है, उन्हें तो सीबीआई ने ही बाहर कर दिया है। अन्यथा ये दो सज्जन राष्ट्रपति के सर्वथा योग्य हैं और यह उनका प्राप्तव्य भी बनता है। इनके अलावा सुषमा स्वराज और सुमित्रा महाजन भी सही उम्मीदवार हो सकती हैं। यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि राष्ट्रपति के पद पर किसी दलीय नेता की बजाय किसी निष्पक्ष और राजनीतिक व्यक्ति को बिठाया जाना चाहिए, जैसे कि डाॅ. अब्दुल कलाम को बिठाया गया था। ऐसा आदमी भी राष्ट्रपति बने तो इसमें कुछ बुराई नहीं है लेकिन भारत के लगभग सभी राष्ट्रपति कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहे हैं और उन्होंने अपनी भूमिका यथासंभव ठीक से निभाई है। क्या हम राजेंद्र बाबू और नेहरुजी तथा जैलसिंहजी और राजीव के द्वंद्वात्मक रिश्तों को भूल गए ? आपात्काल के कागजों पर फखरुद्दीन अली अहमद ने दस्तखत जरुर किए लेकिन डाॅ. राजेंद्र प्रसाद और उनके बाद के कई राष्ट्रपतियों ने अपने प्रधानमंत्रियों को चेतावनियां दीं, मार्गदर्शन दिया, सही सलाह दी और कभी-कभी कुछ मामलों में अंगद का पांव भी अड़ा दिया। कई राष्ट्रपतियों ने अपनी पूर्व पार्टी के प्रधानमंत्रियों की काफी तगड़ी खिंचाई की है, यह मुझे व्यक्तिगत रुप से पता है। जब गुप्त दस्तावेज खुलेंगे तो इसका पता सबको चलेगा। राष्ट्रपति का चुनाव सर्वसम्मति से हो तो अच्छा है लेकिन सर्वसम्मति से ही इस लोकतंत्र को चलाना जरुरी है तो देश में सैकड़ों पार्टियों की जरुरत ही क्या है ? प्रतिपक्ष को अपना उम्मीदवार जरुर खड़ा करना चाहिए। उसके बहाने उसे अपना प्रचार करने और सत्ता पक्ष की कमियां गिनाने का मौका मिलता है। विरोधियों की एकता, अगर वह है तो, उसे प्रकट करने का मौका भी मिलता है। यदि राजनीति में रचा-पचा व्यक्ति राष्ट्रपति बनता है तो वह मंत्रिमंडल के दांव-पेंच और विरोधियों की तिकड़मों को एक दम समझ लेता है। वरना, वह नौकरशाहों पर निर्भर हो जाता है। उसके संपर्क इतने व्यापक होते हैं कि राष्ट्रीय संकट के अवसर पर वह सभी पक्षों से सहयोग लेने में सफल हो सकता है। जरुरी नहीं है कि किसी रबर के ठप्पे को ही उस कुर्सी पर बिठाया जाए।
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