गुरमीत राम रहीम के नाम पर जितनी हिंसा और तोड़-फोड़ हुई है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि उनके प्रति लाखों लोगों की कितनी अंध-श्रद्धा है। यह अंध-श्रद्धा कैसी है और कितनी है, इसका जितना अंदाज गुरमीत को है, उतना किसी को नहीं होगा (यहां मैं राम रहीम जैसे पवित्र शब्दों से संकोच कर रहा हूं)। गुरमीत की जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यह कि अदालत ने उन्हें जब दोषी करार दिया तो वे कुछ बोले नहीं। उन्होंने जज को कोसा नहीं, गालियां नहीं दीं और कोई शाप वगैरह भी नहीं दिया। बस उनकी आंखों से आंसू टपकते रहे।
क्या ये दुख और पश्चाताप के आंसू नहीं थे? जजों और सीबीआई के लोगों से भी ज्यादा उन्हें पता है कि उन्होंने कितने बलात्कार किए हैं, कितने व्यभिचार किए हैं और कितनी हत्याएं की हैं। इन सब से इंकार करके वे झूठ बोल सकते थे लेकिन अदालत के फैसले के बाद वे सत्यनिष्ठ बने रहे, यह अपने आप में काबिले-गौर है।
अब इसी हौंसले को वे आगे बढ़ाएं और 28 अगस्त को अदालत उनको सजा सुनाए, उसके पहले ही वह अपनी सजा खुद को सुना दें। वे कहें कि वे साधारण मुजरिम नहीं हैं। वे असाधारण व्यक्ति हैं। वे संत हैं। महापुरुष हैं। भगवान हैं। मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों से कहीं ज्यादा उनकी महिमा है। ऐसी बातें वे अपने चेलों को कहते रहे हैं। तो अब जज को भी कह दें। उसे अपने सारे दुष्कर्मों और जघन्य अपराधों के बारे में बता दें। वे नहीं बताएंगे तो भी उन्हें बलात्कार के लिए 7 साल और हत्याओं के लिए आजीवन जेल में रहना होगा। अब वे यह मांग करें कि वे साधारण नागरिक नहीं हैं, असाधारण हैं, इसलिए उनकी सजा भी असाधारण होनी चाहिए। उन्हें कम से कम सजा-ए-मौत मिलनी चाहिए और उनके शव को कुत्तों से नुचवाकर लाखों भक्तों के सामने नष्ट किया जाना चाहिए।
यदि गुरमीत राम रहीम इतनी हिम्मत कर सकें तो उनकी मृत्यु के बाद वे अमर हो जाएंगे। सारी दुनिया के पाखंडी संत-साधुओं के लिए वे एक बेमिसाल मिसाल बन जाएंगे। वे संतों के संत, महासंत कहलाएंगे।
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