उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के नेताओं के बीच जो मेल-मिलाप हुआ है, वह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना है। उसकी तुलना दो जर्मनियों या दो वियतनामों के मिलन से की जा सकती है। या कल इजराइल और फलस्तीन या भारत और पाक के बीच ऐसी पहल हो जाए तो वे भी इसी स्तर की घटना मानी जाएंगी। यह संयोग ही है कि इस कोरियाई मिलाप के समय ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी नेता शी जिंगपिंग की भेंट चीन में हो रही है। यह कैसा संयोग है कि दुनिया के दो सबसे बड़े देशों के दो सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ नेताओं की भेंट कोरिया जैसे 8 करोड़ लोगों के दो छोटे से देशों के नेताओं की भेंट के आगे फीकी पड़ गई है। सारी दुनिया के टीवी चैनलों और अखबारों में मून जे इन और किम जोंग उन की भेंट छाई हुई है। सभी महाशक्तियां उसका स्वागत कर रही हैं। इस भेंट में यह तय हुआ है कि 68 साल पहले चले हुए युद्ध को अब समाप्त करना है। 1950 में चले युद्ध ने कोरिया को दो टुकड़ों में बांट दिया था। दोनों कोरिया एक होंगे या नहीं, इस पर अभी कोई बात नहीं हुई है लेकिन यह तय हुआ है कि दोनों कोरिया का अपरमाणुकरण होगा। इसका एक अर्थ तो साफ है कि उ़ कोरिया अब परमाणु शस्त्रास्त्र नहीं बनाएगा लेकिन अभी यह तय होना है कि दक्षिण कोरिया में तैनात अमेरिकी परमाणु शस्त्रास्त्र और 30 हजार सैनिकों की वापसी कब होगी? दोनों कोरिया अब, शांति और सद्भाव के रास्ते पर चलेंगे तथा आपस में आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक सहयोग बढ़ाएंगे। इस समझौते को अमेरिका का पूर्ण समर्थन प्राप्त है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप और किम की जो भेंट मई या जून में होने वाली है, उसमें स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी। चीन के असली रवैए का पता तभी चलेगा। यदि दोनों कोरिया अमेरिका की गोद में बैठते हुए लगेंगे, जैसा कि वियतनाम में हुआ है तो चीन उसे आसानी से पचा नहीं पाएगा। मेरा प्रश्न यह है कि यदि दोनों कोरिया के बीच सद्भाव का जैसा सेतु बना है, यह भारत और पाक के बीच क्यों नहीं बन सकता? यदि भारत और पाकिस्तान एक न होना चाहें तो न हो लेकिन वे भारत-पाक महासंघ तो बना ही सकते हैं। चीन के लिए तो यह खबर भी दुखदायी हो सकती है।
Leave a Reply