राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह आरोप लगाना आसान है कि 2019 में मोदी को टेका लगाने के लिए उसने अब राम मंदिर का शोशा फिर से छोड़ दिया है। संघ के मुखिया मोहन भागवत ने अपने दशहरे के उद्बोधन में सरकार से मांग की है कि वह अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए तुरंत अध्यादेश जारी करे। वह अदालत के फैसले का इंतजार न करे। यहां यह सवाल भी उठ रहा है कि पिछले चार साल से भागवत के मुंह पर पट्टी क्यों बंधी रही ? चुनाव के साल भर पहले ही उन्हें मंदिर की याद क्यों आई ? इन सवालों को मैं एकदम रद्द नहीं कर रहा हूं लेकिन मैं मानता हूं कि मोहनजी ने जो मांग की है, वह मुझे बहुत सही और व्यावहारिक लगती है। सही इसलिए कि यदि अयोध्या की राम जन्मभूमि में मंदिर नहीं बनेगा तो कहां बनेगा ? अल्लामा इकबाल ने राम को ‘इमामे हिंद’ कहा है। राम तो एक ऐसे महापुरुष हैं, जिनके प्रति इंडोनेशिया के मुसलमान, थाईलैंड और कंपूचिया के बौद्ध और भारत के सभी लोग श्रद्धा और प्रेम का भाव रखते हैं। उनके जन्म-स्थान पर मंदिर बनने से सदियों पुराना झगड़ा खत्म हो जाएगा। यदि आप अदालत के भरोसे रहेंगे तो शायद सत्तर साल और भी लग जाएंगे। अदालतों को पता है कि उनके कई फैसले लागू ही नहीं हो पाते। सबरीमाला मंदिर में उसका उल्लंघन हो रहा है या नहीं ? अदालत देर इसीलिए लगा रही है कि वह अपनी गर्दन फंसाना नहीं चाहती। इसीलिए अध्यादेश की बात उत्तम है। लेकिन उसकी दशा नोटबंदी और जीएसटी की तरह न हो जाए, यह देखना संघ का काम है। यदि यह काम सिर्फ मोदी के भरोसे छोड़ दिया गया तो बाद में संघ को पछतावा हो सकता है। 6 दिसंबर 1992 (रविवार) को मस्जिद का ढांचा गिरने के बाद 1993 में प्रधानमंत्री नरसिंहरावजी की सरकार ने एक अध्यादेश जारी करके मंदिर के आस-पास की 67 एकड़ जमीन अधिग्रहीत कर ली थी। उस समय भी और अब भी मेरा विचार यह है कि उस 70 एकड़ भूमि पर अत्यंत भव्य राममंदिर तो बने ही, उसके साथ-साथ उस स्थान को विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का पूजा-स्थल भी बना दिया जाए। यही सच्चा हिंदुत्व है। सच्ची भारतीयता है। 1993 के अध्यादेश में भी इसका इशारा है। नया अध्यादेश लाने के पहले सरकार को चाहिए कि सभी मुकदमाग्रस्त पार्टियों और विशाल भारतीय समाज की सर्वसम्मति खड़ी की जाए। इसमें संघ पहल करे। यह असंभव नहीं है। 1991-92 में मैंने पहल की थी। विश्व हिंदू परिषद के मुखिया श्री अशोक सिंघल और प्र.मं. राव साहब सहमत हुए और राम मंदिर की कार-सेवा तीन माह आगे बढ़ा दी गई। अक्तूबर के बजाय वह दिसंबर में हुई। इस बीच मेरे घर पर अशोकजी, राजमाता सिंधियाजी, शहाबुद्दीनजी आदि कई हिंदू-मुस्लिम नेता इस विवाद का समाधान खोजने के लिए संवाद करते रहे। इस संवाद के प्रति तत्कालीन संघ-प्रमुख रज्जू भय्या और सुदर्शनजी भी आशान्वित थे। यदि 6 दिसंबर को मस्जिद नहीं गिरती तो शायद इसका संतोषजनक समाधान निकल आता। वह अब भी निकल सकता है। वही सर्वोत्तम है।
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