अब से 12 साल पहले जिन तीन मामलों ने ‘भगवा आतंक’ शब्द को जन्म दिया था, उन तीनों के आरोपियों को पूरी तरह से बरी कर दिया गया है। हैदराबाद की मक्का मस्जिद और अजमेर के हत्याकांड के बाद दिल्ली-लाहौर समझौता-एक्सप्रेस में बम-विस्फोट हुआ था। इन विस्फोटों में मरनेवाले ज्यादातर मुसलमान ही थे। माना गया था कि यह ‘इस्लामी आतंक’ का मुंहतोड़ जवाब था। यह ईंट के जवाब में पत्थर था। उन्हीं दिनों अक्षरधाम (गुजरात), रघुनाथ मंदिर (जम्मू) और संकटमोचन मंदिर (वाराणसी) पर आतंकी हमले हुए थे। ये तीनों स्थान भारत में हिंदुओं के प्रसिद्ध पवित्र-स्थल हैं। जाहिर है कि हिंदू समाज में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। सारा देश गुस्से में कांप रहा था। उस समय कहा गया कि क्या हिंदुओं ने चूड़ियां पहन रखी हैं ? वे जवाबी हमला क्यों नहीं करते ? तो हमला हुआ। कांटे को कांटे से निकालने की कोशिश हुई। विष को विष की औषधि बनाया गया और फिर ये तीन हमले हुए, जिन्हें ‘भगवा आतंक’ कहा गया।
आतंकी कोई भी हों, भगवा या इस्लामी, पहले तो वे पकड़े ही जाएं यह जरुरी नहीं और पकड़े जाने पर दंडित हों, यह भी जरुरी नहीं। मसूद अजहर और हाफिज सईद छुट्टे घूम रहे हैं या नहीं ? इसी तरह असीमानंद और उसके साथी भी छूट गए तो इसमें रोना-धोना क्यों ? राष्ट्रीय जांच आयोग (एनआईए) को इनके विरुद्ध पर्याप्त प्रमाण ही नहीं मिले। यहां यह पूछना भी जरुरी है कि उस सरकार को भी आप कोई सजा देंगे या नहीं, जिसने ‘निर्दोष’ लोगों को 8-10 साल जेलों में बंद रखा? अब तो हमें यह मानना पड़ेगा कि समझौता-एक्सप्रेस के दोनों डिब्बों को किसी ने नहीं उड़ाया। वे अपने आप ही उड़ गए। इस मुद्दे पर अब राजनीतिक उठा-पटक जमकर चलेगी लेकिन यहां मूल प्रश्न यही है कि क्या आतंक का सही जवाब आतंक है ? क्या ‘इस्लामी आतंक’ का मुंह बंद करने में तथाकथित ‘भगवा’ आतंक सफल रहा ? नहीं, बिल्कुल नहीं। उसके बाद पुलवामा, उरी, पठानकोट तथा आतंक की कई अन्य घटनाएं होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी। आतंक की जड़ों को मट्ठा कैसे पिलाएं, यह मैं पहले कुछ लेखों में बता चुका हूं।
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