केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री श्री सत्यपाल सिंह के एक बयान को लेकर काफी हंगामा मचा हुआ है। अपने आप को वैज्ञानिक समझने वाले लोग काफी बौखलाए हुए हैं। डा. सत्यपाल सिंह ने अपने एक भाषण में चार्ल्स डार्विन के विकासवाद को रद्द कर दिया और कह दिया कि ऐसे तर्करहित सिद्धांतों को भारतीय पाठ्य-पुस्तकों से निकाल बाहर करना चाहिए। उन्होंने कहा कि डार्विन सही होता तो पिछले 2 लाख साल से आज तक किसी ने बंदर से आदमी बनते क्यों नहीं देखा ? डा. सिंह की इस बात से मैं सहमत नहीं हूं कि डार्विन के विकासवाद को भारत में पढ़ाया ही नहीं जाना चाहिए। मैं कहता हूं कि उसे जरुर पढ़ाया जाना चाहिए और पढ़ाते-पढ़ाते उसका चूरा-चूरा कर देना चाहिए। इसमें शक नहीं कि डार्विन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ओरिजिन आफ स्पेसीज’ (1859) लिखने में जबर्दस्त मेहनत की थी और 20 साल लगाए थे।
जब वे पहली बार दक्षिणी अमेरिका के गैलापोगोस द्वीप पर पहुंचे तो वहां तरह-तरह के जानवरों, पंछियों और कीड़ों-मकोड़ों में उन्हें अदभुत समानताएं दिखाई पड़ीं। उन्हीं से प्रेरित होकर उन्होंने कई प्रयोग किए और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अमीबा से विकास होते-होते सारी सृष्टि बन गई। गधे-जैसा दिखने वाले जिर्राफ की गर्दन ऊंट से भी ज्यादा लंबी इसलिए हो गई कि दो-चार फुट वाले पौधों की पत्तियां खत्म हो गई और उसे ऊंचे वृक्षों के पत्ते खाने के लिए अपनी गर्दन उठानी पड़ती थी। इसी प्रकार मछलियों के पंख उग आए और बंदर विकसित होते-होते मनुष्य बन गया। डार्विन के पहले लामार्क ने इससे भी बड़े अंदाजी घोड़े दौड़ाए थे। इसी अटकलपच्ची को वैज्ञानिक सत्य मान लिया गया। भारत के वैज्ञानिक और शिक्षित लोग आज भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हुए हैं। इसीलिए डा. सत्यपालसिंह की दो-टूक राय उन्हें वज्रपात की तरह लगी। डार्विन, लामार्क, अल्फ्रेड वालेस जैसे विचारकों को यह विकासवाद उतना ही काल्पनिक है, जितना कि विभिन्न धर्मग्रंथों में वर्णित सृष्टि-उत्पत्ति के सिद्धांत ! आज भी ईश्वर का अस्तित्व और सृष्टि की उत्पत्ति अपने आप में घनघोर रहस्य है। क्या आज तक किसी ने ईश्वर को देखा है या सृष्टि को उत्पन्न होते हुए देखा है ?
विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने उसे उद्धृत करते हुए माना है कि परमेश्वर ने सृष्टि के आदी में न बच्चे पैदा किए और न ही बूढ़े बल्कि युवक और युवती पैदा किए, जो आत्म-निर्भर थे और जो संतानोत्पादन कर सकते थे। तर्क की दृष्टि से देखा जाए तो डार्विन की हवाबाजी के मुकाबले दयानंद की यह दृष्टि ठीक मालूम पड़ती है और इसमें न तो वैज्ञानिकता का कोई पाखंड है और न ही गोरी चमड़ी की कोई औपनिवेशिक धौंस। यही बात डा. सत्यपाल सिंह ने कही है।
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