पिछले कई दिनों से कर्नाटक में हिंदी-विरोधी आंदोलन चल रहा है। रेल्वे स्टेशनों पर लगे हिंदी नामपटों को पोता जा रहा है। कर्नाटक के लिए एक अलग झंडे की मांग की जा रही है। अभी अलग झंडे की मांग को तो दरी के नीचे सरका दिया गया है, क्योंकि कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार इसका खुला समर्थन नहीं कर सकती। यदि मुख्यमंत्री सिद्धरमैया किसी क्षेत्रीय पार्टी में होते तो इस मांग को वे हाथोंहाथ उठा लेते लेकिन हिंदी-विरोध का कर्नाटक में कोई विरोध नहीं कर रहा है। न तो सत्तारुढ़ कांग्रेस, न सत्ताकांक्षी भाजपा और न ही पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का जनता दल !
कोई आश्चर्य नहीं कि यह हिंदी-विरोधी आंदोलन दक्षिण के अन्य राज्यों में भी जोर पकड़ ले। एक तरह से यह केंद्र के विरुद्ध दक्षिण के सभी विघ्नसंतोषी राज्यों को एक कर दे सकता है। केंद्र की मोदी सरकार के विरुद्ध ये सब राज्य इसलिए भी एक हो सकते हैं कि वह हिंदी की माला जपती रहती है। (हालांकि उसने पिछले तीन साल में हिंदी के लिए एक पत्ता भी नहीं हिलाया)। यदि अंदर ही अंदर खदबदा रहे इस आंदोलन का तोड़ नहीं निकाला गया तो दक्षिण में भाजपा का सूंपड़ा साफ तो हो ही जाएगा, देश में हिंसा और तोड़-फोड़ का माहौल भी बन जाएगा।
कर्नाटक में लिंगायत संप्रदाय के लोग अपने आपकी पहचान को ‘हिंदू’ से अलग करवाना चाहते है। भाजपा के लिए यह भी बड़ा सिरदर्द बन सकता है। तो सवाल है कि क्या किया जाए ? इस समय कन्नड़ भाषा के आंदोलन का विरोध करना गलत है। दक्षिण में हमें तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम का डटकर समर्थन करना चाहिए। वहां रहने वाले हिंदीभाषियों को भी ये भाषाएं सीखना चाहिए। उत्तर भारत के नेता जब दक्षिण में जाएं तो उन्हें उन्हीं भाषाओं के अपने भाषण देवनागरी में लिखवाकर बोलना चाहिए। दक्षिण के नेता हिंदी सीखते हैं या नहीं ? देवेगौड़ाजी हिंदी में लिखे भाषणों को बड़े चाव से पढ़ा करते थे। दिल्ली में रहते हुए अब वे थोड़ी-बहुत हिंदी बोल लेते हैं।
उत्तर भारतीय नेता ऐसे प्रयोग संसद में क्यों नहीं करते ? इसके अलावा जो सबसे जरुरी काम है, उसे करने में हमारे कांग्रेसी भाजपाई नेता, दोनों ही बहुत डरते हैं। अगर ये दोनों अखिल भारतीय पार्टियां अंग्रेजी हटाओ आंदोलन छेड़ दें तो क्या होगा ? यदि कांग्रेस और भाजपा के कार्यकर्त्ता दक्षिण की भाषाओं का डटकर समर्थन करें और अंग्रेजी के नामपट पोतने लगें तो क्या होगा ? हिंदी को लाने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। वह अपने आप आ जाएगी। त्रिभाषा-सूत्र तत्काल खत्म करें और प्रांतीय भाषाओं को प्रथम स्थान दें तो अखिल भारतीय संपर्क हिंदी के बिना कैसे संभव होगा ? यदि हम प्रांतीय भाषाओं को सिर पर बिठाएं तो वे हिंदी को गोद में जरुर बिठाएंगी
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