श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेन की कितनी दुर्गति हो गई है। इतनी परेशानी तो इंदिरा गांधी ने भी 1975 में नहीं देखी थी। सिर्फ अदालत ने उनके खिलाफ फैसला दिया था। लेकिन श्रीसेन के फैसलों को श्रीलंका के सर्वोच्च न्यायालय और संसद, दोनों ने रद्द कर दिया है। अदालत ने भंग की गई संसद को दुबारा जिंदा कर दिया और श्रीसेन द्वारा नियुक्त नए प्रधानमंत्री महिंद राजपक्ष को मजबूर कर दिया कि वे अपने पद से इस्तीफा दें। संसद ने बर्खास्त पूर्व प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ को दुबारा प्रधानमंत्री मान लिया। अब राजपक्ष ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी है। अब आशा की जाती है कि श्रीलंका का संवैधानिक संकट समाप्त हो जाना चाहिए लेकिन श्रीसेन का कुछ पता नहीं, वे क्या कदम उठा लें। उन्होंने इस संकट के दौरान कहा है कि यदि संसद सर्वसम्मति से भी कहे कि वे रनिल के साथ सरकार की गाड़ी धकाएं तो भी वे नहीं धकाएंगे।
संसद में रनिल का बहुमत कई बार सिद्ध होने पर भी उन्होंने 26 अक्तूबर को रनिल को बर्खास्त कर दिया था और संविधान का उल्लंघन करते हुए संसद को भी भंग कर दिया था। श्रीलंका की न्यायपालिका में अगर दम नहीं होता और वह श्रीसेन को सबक नहीं सिखाती तो श्रीलंका में अभी खून की नदियां बहतीं। अब श्रीसेन और राजपक्ष मिलकर अगले साल आम चुनाव लड़ेंगे। चार साल पहले तक राजपक्ष राष्ट्रपति थे और श्रीसेन उनके मंत्री थे लेकिन दोनों में झगड़ा हुआ और दोनों ने एक-दूसरे के विरुद्ध राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा। उस चुनाव में श्रीसेन जीत गए और राष्ट्रपति बन गए लेकिन उनके दिमाग में सत्ता का गरुर छा गया। उन्होंने ससंद में बहुमत प्राप्त प्रधानमंत्री के खिलाफ साजिशें करनी शुरु कर दीं। इस समय उनकी छवि चौपट हो चुकी है। अब राजपक्ष और श्रीसेन मिलकर भी लड़ेंगे तो रनिल विक्रमसिंघ को हराना मुश्किल होगा। सच्चाई तो यह है कि श्रीलंका पहले सिंहल-तमिल मुठभेड़ में अपना नुकसान करता रहा अब सिंहलों के आपसी झगड़ों की वजह से उसकी अर्थव्यवस्था डगमगा गई है। श्रीलंका के आंतरिक मामलों में भारत हस्तक्षेप तो नहीं करेगा लेकिन पड़ौसी देश होने के कारण उसके लिए यह स्थिति चिंता का विषय तो है ही।
Leave a Reply