केरल के सबरीमला मंदिर में रजस्वला औरतों के प्रवेश को लेकर जो मुठभेड़ आजकल चल रही है, उसका हिंदू धर्म या तर्कबुद्धि से कुछ लेना-देना नहीं है। यह मुठभेड़ है, केरल की मार्क्सवादी सरकार और भाजपा के बीच। मजेदार तथ्य यह है कि इस नौटंकी में भाजपा और कांग्रेस साथ-साथ है। देश की ये दोनों पार्टियां यह सिद्ध कर रही हैं कि इनका बौद्धिक दीवाला निकल चुका है। पहले कांग्रेस को लें। कांग्रेस तो नेहरु परिवार की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है लेकिन वह जवाहरलाल नेहरु को ही ताक पर बिठा रही है। नेहरु हमेशा ‘वैज्ञानिक मिजाज़’ की बात किया करते थे। सबरीमाला मंदिर में रजस्वला स्त्रियों के प्रवेश पर प्रतिबंध को क्या आप किसी वैज्ञानिक पैमाने पर सही ठहरा सकते हैं? नहीं । लेकिन कांग्रेस उसे सही बता रही है, क्योंकि केरल में उसका मुकाबला मार्क्सवादी पार्टी की सरकार से हैं। नेहरु को धर्म-निरपेक्षता अपने प्राणों से भी प्यारी थी लेकिन कांग्रेस ने उस समय उस फैसले का विरोध क्यों नहीं किया, जब सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई की हाजी अली की दरगाह में मुस्लिम औरतों के प्रवेश पर घोषित प्रतिबंध को रद्द किया था?
मुस्लिम औरतों की पूजा की आजादी का समर्थन और हिंदू औरतों का विरोध ! क्या यह उलट-सांप्रदायिकता नहीं है? हिंदू औरतों की पूजा की आजादी का विरोध भाजपा भी कर रही है। क्या यह उलट-हिंदुत्व नहीं है ? सबरीमला के सवाल पर कांग्रेस अपने सिद्धांतों को ही कच्चा चबा डाल रही है। अब भाजपा को लें, उसके अध्यक्ष अमित शाह ने केरल जाकर उन लोगों को पीठ ठोकी, जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं। उन्होंने अदालत को उपदेश दिया कि वह ऐसे फैसले करे, जो लागू हो सकें। उनसे पूछे कि उन फैसलों को लागू करने की जिम्मेदारी किसकी है ? सरकार और नेता लोग दब्बू और कायर हों तो अदालत तो क्या, किसी पंचायत का फैसला भी लागू नहीं किया जा सकता।
शाह ने सर्वोच्च न्यायालय को संकेत दे दिया है कि वह राम मंदिर के मामले में ऐसा फैसला ही दे, जिसे मोदी सरकार लागू कर सके। न्यायपालिका का इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है ? अगर अमित शाह यह कहते कि समाज का संचालन सिर्फ कानून से नहीं हो सकता है तो उनकी बात तर्कसंगत और तथ्यसंगत होती। समाज-परिवर्तन का बुनियादी काम महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डा. लोहिया-जैसे महापुरुष ही कर सकते हैं। हमारे छुटभय्या नेताओं के लिए तो कुर्सी ही ब्रह्म है।
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